मंगलवार, 8 नवंबर 2016

अमेरिकी चुनाव के पहले का एक विश्लेषण

सभी ब्लॉगर मित्रों को न्यूयॉर्क से देव बाबा की राम राम........ लोकतंत्र में असंभव कुछ नहीं है और भारत हो या अमेरिका मामला एक सा ही है। एक जमाने के डेमोक्रैट आज रिपब्लिकन के राष्ट्रपति उम्मीदवार हैं और एक जमाने की रिपब्लिकन आज की डेमोक्रैट उम्मीदवार है, जी यह 2016 का अमेरिका है। 

"अबकी बार ट्रम्प सरकार" का गान करने वाले मोदी के समर्थक ट्रम्प का राजनैतिक करियर कुछ ऐसा रहा है: रिपब्लिकन: (1987–1999, 2009–2011, 2012–present) और डेमोक्रैट: (before 1987, 2001–2009) और वहीं हिलेरी क्लिंटन 1968 के पहले एक रिपब्लिकन थी और आज डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति की उम्मीदवार हैं। 

बहरहाल अब कल चुनाव हैं और अमेरिका अपने नये राष्ट्रपति का चुनाव करेगा। इस बार डोनाल्ड ट्रम्प और हिलेरी के बीच का यह चुनाव कई उठापटक के लिए जाना जायेगा और आज तक कभी किसी भी चुनाव के लिए इतने उतार चढ़ाव नहीं हुए। स्कैंडल, घोटाले और नौटंकियों से भरा हुआ यह चुनावी समय अजीब सा ही रहा। कुछ बुजुर्ग अमेरिकी नागरिकों की नज़र में यह दोनों ही अमेरिका के राष्ट्रपति बनने योग्य नहीं हैं और युवा वर्ग भी बंटा हुआ है। मेरे विचार से यहाँ इस बार का मामला 49/51 वाला ही होगा। भारतीय समुदाय तो कभी भारत में संगठित नहीं हुआ तो यहाँ तो क्या ही होगा इसलिए वह भी पूरी तरह से बंटा हुआ है।  

बाजार विशेषज्ञों की नज़र में बुधवार को ट्रम्प के जीतने की स्थिति में पूरी दुनिया के शेयर बाजार गिर जाएंगे... हिलेरी के जीतने पर बाजार गिरेगा लेकिन उतना नहीं... ट्रम्प के जीतने पर मेक्सिको का बाजार सबसे ज्यादा प्रभावित होगा, बीस से तीस प्रतिशत तक धराशाई होना संभव है। ट्रम्प के जीतने की खबर यदि बुधवार सुबह के पहले ही आ गई तो जापान और चीन के सूचकांक सबसे पहले गिरेंगे और फिर भारत, यूरोप, ब्रिटेन सब कुछ लाल होगा और हाँ अमेरिका, लैटिन अमेरिका के सब बाजार धराशाई होंगे। वहीं हिलेरी के जीतने पर एशियाई बाजारों में तेजी होगी और यूरोप के बाजार सामान्य रहेंगे। मित्रों शेयर बाजार का किसी भी सरकार के चुने जाने पर चढ़ जाना या गिर जाना उस सरकार का बैरोमीटर नहीं है और बाजार की यह एक अस्थाई प्रतिक्रिया होती है। 2009 में मनमोहन के दुबारा चुने जाने के बाद मार्केट में दो बार अपर सर्किट (10% और 15%) लगा था लेकिन हम सब जानते हैं कि 2009-2014 के बीच रही भारत सरकार अब तक की सबसे खराब सरकार रही है सो आप स्वयं ही अंदाजा लगा सकते हैं। 

वैसे यहाँ भी कई समस्याएं हैं - मुफ्त बीमा, इलाज और जरूरत मंद को नौकरी जैसे मुद्दे, बजट पर बढ़ता हुआ घाटा, आतंकवाद को लेकर ढुलमुल रवैया, रूस के साथ तनातनी, राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर विश्व का सबसे कर्जदार देश अमेरिका वाकई में बदलाव को कितना समर्थन देगा यह तो चौबीस घंटे में पता चल जायेगा। यहाँ भारत जैसे जातिवादी नेता और जनता नहीं लेकिन फिर भी अश्वेतों की हत्या और फिर उनकी सुरक्षा भी एक मुद्दा तो है ही। 

देखते हैं, मामला चौबीस घंटे में साफ़ हो जायेगा। जो भी हो, मेरे लिए आने वाले दो दिन काफी व्यस्त होंगे और बाजार का परिवर्तनशील होना अपने आप में मुझे बहुत व्यस्त कर देगा। 

बीच बीच में रिपोर्टिंग चालू रहेगी, देखते हैं क्या होता है।

रविवार, 14 अगस्त 2016

क्रिकेट बनाम ओलम्पिक

जैसे कि उम्मीद थी ओलम्पिक में भारत की दुर्गति का सिलसिला जारी रहा और बुद्धिजीवियों ने क्रिकेट को गालियाँ देकर अपनी कुंठा शांत की। इसी बीच क्रिकेट में भारत ने वेस्टइंडीज़ को धूल चटा दी और नंबर एक की ओर एक कदम बढ़ा लिया। अब इन दोनों में क्या समानता है और क्या फर्क है? सब क्रिकेट को गालियाँ ज़रूर देते हैं लेकिन क्रिकेट से कुछ सीखने की बात नहीं कहते। अब अगर क्रिकेट में भी हारना शुरू करें तब बुद्धिजीवियों की कुंठा शांत हो जायेगी? आपको अब क्रिकेट में जीत पर गर्व नहीं होता?

मित्रों सन अस्सी में भारत ने हॉकी में अपना आखिरी ओलम्पिक सोना जीता और तिरासी में भारत ने क्रिकेट विश्व कप और यकीन मानिए भारत के विश्व कप जीतने के पहले कोई क्रिकेट को समझता भी नहीं था और न ही यह भारत में कोई बाज़ार ही था। विश्व कप जीतने के बाद भारत वासियों ने समझा कि क्रिकेट भी कोई खेल है, बहरहाल इसके बाद भारतीय खेलों के इतिहास में जो हुआ वह समझने के प्रयास कीजिये। बीसीसीआई को मिली स्वायत्तता और खेलों से मिले पैसे के सही उपयोग की क्षमता से भारत में क्रिकेट का एक बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा हुआ। हर  शहर में क्रिकेट के मैदान, सामान की उपलब्धता हुई, क्रिकेट फल फूल रहा था और उधर बदलती हुई दुनिया में हॉकी हाई-टेक और एस्ट्रोटर्फ की ओर जा रही थी और भारत परंपरागत हॉकी से बाहर नहीं आ पा रहा था। लगातार हार से लोग हॉकी से दूर और क्रिकेट के करीब आते गए। बीसीसीआई मालामाल और बाकी खेल कंगाल होते गए। भारत सरकार ने कभी खेलों के लिए अपनी नीति बनाई ही नहीं और एथेलेटिक्स, हॉकी, फुटबॉल जैसे खेल कभी कमाकर कुछ दे ही नहीं पाए सो नतीजा यह हुआ कि पैसे की कंगाली के कारण खिलाड़ी और बोर्ड बदहाल होते गए।

इन खेलों को अगर ऊपर लाना है तो बीसीसीआई की तरह इनकी एशोसियेशन बनाओ, स्वायत्तता दो, पैसा दो और खेलों का आधारभूत ढांचा खड़ा करो। बच्चो को स्विमिंग पूल दो, रनिंग ट्रैक दो ताकि बचपन से ही टैलेंट को निखारा जा सके। और हाँ इन खेलों को भी बाज़ार में लाना होगा, पैसा कमाना होगा, जीतना होगा। और हाँ एक और बात, हम हिंदुस्तानियों को खेल नहीं तमाशा चाहिए, मनोरंजन चाहिए सो इन खेलों को मनोरंजन का साधन बनाना होगा। क्रिकेट से सीखो कुछ, और पैसा कमाने का साधन खोजो। 

अगर ऐसा सही में हुआ तब कहीं जाकर बीस तीस साल में भारत की ओलम्पिक में हालत सुधर सकती है।  अगर ऐसा नहीं कर सकते तो चुप बैठो लेकिन क्रिकेट को गालियाँ मत दो।

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

भाजपा का आत्मघाती रवैया..

भाजपा उत्तर प्रदेश में नहीं जीत सकती, इसलिए नहीं कि उसके पास नेता नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि उसके पास अपने कार्यकर्ता की देखभाल करने और पार्टी के कार्यकर्ताओं को अपना समझने की ही समझ नहीं है। अभी नया हादसा देखिये, दयाशंकर ने जो भी कहा हो उसके बाद दयाशंकर के परिवार के प्रति भाजपा का उदासीन रवैया निंदनीय है। एक कार्यकर्ता अपनी ज़िन्दगी पार्टी को दे देता है, लेकिन सत्ता की मलाई मिल जाने पर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कांग्रेस सरीखा हो रहा है। मोदी के सिपहसालार अपनी ही वोट बैंक की अनदेखी कर रहे हैं और कार्यकर्ता हाशिये पर जा रहा है।

हाँ एक और बात, दयाशंकर ने जो कहा वो तो जाने दीजिए लेकिन पैसा लेकर सीट बांटने वाले के लिए क्या शब्द इस्तेमाल होने चाहिए? उसपर मायावती की पार्टी के कार्यकर्ता और वोटबैंक? लेकिन यह वोट बैंक इतना संगठित है कि मायावती जो बिना किसी एजेंडे(बसपा का कोई एजेंडा है क्या?) के दल की नेता और थाली के बैंगन सरीखी स्थिति होने पर भी एकदम तैयार हैं चुनाव के लिए।

उधर भाजपा समझ ही नहीं रही कि उत्तर प्रदेश को जीतने के लिए सड़क पर उतरना होगा, यह अपने आम कार्यकर्ता के परिवार को तो संभाल नहीं पा रही... उत्तर प्रदेश क्या ख़ाक संभालेगी...

बुधवार, 20 जुलाई 2016

साईं ट्रस्ट की दुकानदारी...

आज यूँ ही साईं बाबा की चर्चा निकली। श्रद्धा से जुडी हुई बातें हैं सो इस पर कुछ भी कहना बहुत कठिन होता है उस पर भी मुझ जैसा मूढ़मति, क्या ही कहा जाए।

मैं किसी भी भक्ति या विचारधारा के समर्थन के खिलाफ नहीं लेकिन अंध-भक्ति के खिलाफ ज़रूर हूँ। सनातन धर्म को चोट पहुँचाने वाले कोई और नहीं, स्वयं हिन्दू धर्म के बुद्धिजीवी लोग ही हैं जिन्होंने न जाने किस स्वार्थ से पीड़ित होकर सनातन धर्म को घनघोर क्षति पहुंचाई है। यहाँ बात शिरडी के साईं बाबा के चेलों की व्यापारिक सोच को लेकर है जिसने सनातन धर्म को इस कदर चोट पहुंचाई की स्वयं भोले हिन्दू धर्म के लोग भी इसको समझ नहीं पाए। आज जब मैंने जर्सी सिटी में भी साईं की पालकी के बाद सत्यनारायण मंदिर में पूजा का कार्यक्रम देखा तो अजीब लगा क्योंकि साईं बाबा का भगवान विष्णु की पूजा से क्या लेना देना?

साईं को साईं रहने दीजिये और भगवान विष्णु स्वरुप और भागवत को अपनी जगह रहने दीजिये। आधुनिकता के चक्कर में पहले ही पिछली पीढ़ियों ने धर्म को बहुत भ्रष्ट किया है और ऊपर से अगर सब कुछ छोड़ते चले जायेंगे तो फिर अगली पीढ़ी को पकड़ने के लिए रह क्या जाएगा? अपने धर्म को समझने का प्रयास तो कीजिये, साईं बाबा की पूजा करनी है तो कीजिये लेकिन यदि आप ऐसा अपने धर्म और दर्शन को भूलने की कीमत पर करते हैं तो फिर यह आपकी भयंकर भूल है।

मुझे तकलीफ इस बात से है कि इन्होने एक बड़े व्यापारी के समान इन्होंने साजिशन प्लान के तहत अपनी फ्रेंचाइजी बेचीं और हिंदुओं की सहिष्णुता का भरपूर लाभ उठाया और इस हद तक भ्रष्ट कर दिया जिससे आज कई एक हिन्दू समाज के लोग साईं को भगवान मान राम और कृष्ण के समतुल्य साईं उनकी पूजा करने लगे। भोले हिन्दू पहले इस साज़िश का शिकार बने और अब इसी साजिश का हिस्सा हैं।

अगर आपको बात न समझ में आ रही हो तो कुछेक बातों पर ध्यान दीजिए:
  • इन्होंने वैदिक पद्धितियों की आड़ लेकर साईं की पूजा के कर्मकाण्ड तय किये और साईं को भगवान के रूप में स्थापित करने का पूरा प्रयास किया
  • साईं तो सर्व धर्म समभाव के हितकारी थे तो उनकी कोई मूर्ति या कोई प्रतीक किसी मस्ज़िद या गिरिजाघर में क्यों नहीं? यदि है तो बताने का कष्ट कीजिये? 
  • वैदिक रीति रिवाज़ से पूजा करने के लिए सनातन वैदिक मंत्रों को ही तोड़ मोड़ कर उसमे साईं नाम को इस प्रकार पिरोया जैसे मानो स्वयं वेदव्यास या वाल्मीकि या स्वयं ब्रम्हा ही यह मन्त्र लिख गए हों
  • हर सनातन धर्म के मंदिर में फ्रेंचाइजी दे दी गयी और बड़ा मुनाफा बटोर लिया गया
  • मुझे बताइये कि साईं को किसी भी साहित्य में साईं अल्लाह या साईं यीशु कहा गया? नहीं क्योंकि साईं ट्रस्ट जानता है हिन्दू धर्म में मूर्ख ज्यादा हैं सो दूकान यहाँ अच्छे से चलेगी। अगर मुस्लिम या ईसाईयों को छुआ तो एक ही दिन में दूकान बंद करा देंगे
यहाँ दोष साईं का नहीं, साईं तो साईं ही थे और उनका योगदान अपनी जगह है लेकिन साईं ट्रस्ट और साईं के चेलों द्वारा चलाई जा रही लूट की ओर ध्यान देने की जरूरत है। अगर यह साईं के नाम पर साईं के मंदिर स्थापित करते हैं तो कर लें परंतु सनातन धर्म के मंदिरों में साईं की फ्रेंचाइजी बांटना बंद करें। जो कोई मुझे साईं ने नाम पर चल रहे अस्पतालों का उदाहरण देकर समझाना चाहे तो उनकी जानकारी के लिए बता दूँ की साईं ट्रस्ट की सालाना कमाई लगभग ग्यारह सौ करोड़ है और उसे अपनी कमाई का पचासी प्रतिशत समाजिक कार्यक्रम में खर्च करना चाहिए, जबकि क्या ऐसा है?

(यह आलेख साईं ट्रस्ट द्वारा चलाए जा रहे बिज़नस रैकेट की पोल खोल है, इसका किसी धर्म या समुदाय से कोई लेना देना नहीं)

सोमवार, 4 जुलाई 2016

उत्तर प्रदेश और भाजपा....

वर्ष 1992 उत्तर प्रदेश का बच्चा बच्चा सड़क पर... जय श्री राम के नारे और जयघोष से हर शहर, गली, मोहल्ला गुंजायमान। संघ और भाजपा के कार्यकर्ता घर घर राम की अलख जलाने और भाजपा के प्रचार में मगन.. एक आम आदमी का बयान, अगर हिन्दू सवर्णों के लिए कोई पार्टी है तो भाजपा ही है। नतीजा, कल्याण सिंह पूर्ण बहुमत से सत्ता में। भाजपा के लिए उस समय उत्तर प्रदेश की विजय 2014 में मोदी की विजय से कहीं भी कम नहीं थी। लेकिन भाजपा ने उस दौरान कुछ अजीब से काम कर दिए, पहला नक़ल विरोधी अध्यादेश, दूसरा पुराने समाजवादी नियमों को यूँ ही छोड़ देना। अयोध्या में मस्जिद का ढांचा गिराया, सरकार गिरी, देश भर में बवाल हुआ उसकी प्रतिक्रिया में न जाने क्या क्या हुआ मैं उसको याद नहीं करना चाहता लेकिन भारतीय राजनीति में किसी मुद्दे को घर घर जाकर इस प्रकार प्रचार करना अभूतपूर्व था और सेल्स की टर्मिनॉलॉजी में कहूँ तो राजनीति में डोर टू डोर सेलिंग का इससे बड़ा उदाहरण मुझे नहीं दीखता। बहरहाल सरकार गिरी, राष्ट्रपति शासन लगा और फिर जब चुनाव हुए तब राम लहर के कारण सरकार वापसी जैसी स्थिति कागज़ पर दिख जरूर रही थी लेकिन तभी ज्योति बसु से प्रेरणा पाकर समाजवादियों ने एम-वाय समीकरण खेला। इस एम-वाय (मुस्लिम यादव) वोट बैंक की राजनीति ने जमीनी स्तर पर ओबीसी वोट बैंक, मुस्लिम धर्म गुरु के फतवे और वोट बैंक को बनाने के लिए एक अलग ही प्रयास शुरू किया। जिस समय मुलायम मुस्लिम और यादव को रिझाने में लगे थे, भाजपा अपने मूल हिन्दू वोटर को जोड़ पाने में असफल हो रही थी। नक़ल विरोधी अध्यादेश हटाने का वायदा और मुस्लिम धर्म गुरुओं से समझौते और मिले फतवे के बाद पड़े एकतरफा मुस्लिम वोट और दूसरी तरफ भाजपा के रवैये से दुखी हिन्दू वोटर ... नतीजा मुलायम सिंह पूर्ण बहुमत से मुख्यमंत्री बन गए। सत्ता में बने रहने के लिए मुलायम सिंह ने उस एम-वाय को याद रखा और मुस्लिम वोट बैंक की खुलकर राजनीति की। बाद में किसी भी प्रकार से वोट बैंक वापस पाने की भाजपा की जुगाड़ राजनीति, मायावती से गठबंधन करना... यह सब अजीब सी हरकते देखकर भाजपा का मूल, सवर्ण हिन्दू वोटर पूरी तरह से भाजपा से दूर हो गया। सन नब्बे के उत्तरार्ध की कांग्रेस सरीखा हाल भाजपा का उत्तर प्रदेश में हो गया। न संगठन बचा, न लोग, न कार्यकर्ता जो कुछ बचे भी वह भी आपसी गुटबाजी का शिकार होकर नाकारे हो गए। 

लोकतंत्र में अपने कार्यकर्ता और वोटबैंक को नज़रअंदाज करना कहीं से भी तर्क संगत नहीं होता और इस बात को मुलायम सिंह भी समझते हैं, मायावती भी समझती हैं कल की नौसिखिया आआपा भी समझ गयी और एक यही बात है जिसमे भाजपा ज़बरदस्त तरीके से फिसड्डी है। यह पैराशूट नेता लाते हैं और अपने दल के कार्यकर्ता पर ही भरोसा नहीं करते। तकलीफ यही है कि अब इनकी इसी हरकत के कारण कांग्रेस मुक्त भारत की जगह कांग्रेस युक्त भाजपा सरीखी स्थिति हो रही है। 

भाजपा हर उस राज्य में जबरदस्त प्रदर्शन कर रही है जहाँ उसका सामना सिर्फ कांग्रेस से है क्योंकि अब देश ने कांग्रेस को पूरी तरह से नकार दिया है और कांग्रेस के एक मात्र विकल्प भाजपा को विजय मिल रही है। यह स्थिति वहाँ बदल जाती है जहाँ एक भी क्षेत्रीय दल हैं, क्योंकि यहाँ भाजपा को न सिर्फ हार मिलती है बल्कि सूपड़ा साफ़ होने सरीखी स्थिति बन जाती है। दिल्ली, बिहार इसके नायाब उदाहरण हैं और यकीन मानिए स्थिति उत्तर प्रदेश में भी ऐसी ही होगी।  

जब तक भाजपा अपने जमीनी कार्यकर्ता और अपने वोटर से दूर रहेगी, हारती रहेगी। अपना वोट बैंक बचाने के लिए दादरी सरीखे एक मामले पर दो सदस्य वाला दल भी संसद बंद करा देता है और जब डॉक्टर नारंग जैसा मामला होता है, किसी हिन्दू धर्म स्थल पर तोड़-फोड़ होती है तब आखिर क्यों भाजपा के दो सौ चौरासी सांसद चुप रहते हैं? आखिर उस राज्य की सरकार के खिलाफ कार्यवाही, जुलुस, तोड़-फोड़, प्रदर्शन क्यों नहीं ? 

2014 में कांग्रेस के प्रति क्रोध और मोदी की अपार परिश्रम और ऊर्जा से जीत मिली लेकिन यह रोज रोज नहीं होगा। भारत में वही सफल होगा जो वोट बैंक की राजनीति करेगा, यह काम मुलायम, ममता, माया, जयललिता और लालू तो जानते ही थे अब तो आपिये भी समझ गए...   हाँ अगर जनता स्वाभिमानी होती, बहुसंख्यक हिन्दू इतना बेवकूफ न होता तो स्थिति अलग होती लेकिन जनता का बंटा हुआ होना और उसपर भाजपा का ऐसा रवैया.... बहुत मुश्किल है। चलिए जैसा विकास दिल्ली वालों को मिला, जैसा समाजवाद बिहार में आया ठीक वैसा ही उत्तर प्रदेश में भी जल्दी ही आएगा।  

बुधवार, 22 जून 2016

यूरोप का नया संकट यूरोपियन संघ...

आजकल चर्चा में है यूरोपियन संघ... यूरोप की सबसे बड़ी समस्या बन गया है यह। आइए समझते हैं कि आखिर यूरोपियन संघ क्या है और आखिर ब्रिटेन इससे निकलना क्यों चाहता है। और इस उठापटक से भारत जैसे देशों पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
यूरोपियन संघ: 4,324,782 वर्ग किमी, लगभग पचास करोड़ की आबादी, यूरोप के अठाइस समृद्ध देशों का एक ऐसा संघ जो इन देशों के बीच व्यापार, पर्यटन, नौकरी करने के लिए सुविधाएं देता है। यूरोपियन देशों के बीच बेरोकटोक यातायात और बिना वीज़ा के घूमने और काम करने की सुविधा देता है। इस यूरोपियन संघ की राजधानी ब्रुसेल्स में है और लन्दन और पेरिस दो सबसे बड़े देश हैं। व्यापारिक मुद्दों पर इस संघ का अपना नियम है और यूरोपियन संघ के सभी देश इन्ही नियम से बंधे हुए हैं। यदि कोई देश अपने देश के लिए कोई बदलाव चाहता है तब उसे यूरोपियन यूनियन को प्रस्ताव भेजना होगा और फिर सभी सदस्यों की मंज़ूरी लेनी होगी। 

इसके अठारह सदस्य करेंसी के लिए यूरो का प्रयोग करते हैं। यूरोपियन यूनियन नॉमिनल जीडीपी के अनुसार विश्व की कुल अर्थव्यवस्था का चौबीस प्रतिशत और परचेज पॉवर पैरिटी के अनुसार दुसरे स्थान(अठारह ट्रिलियन डॉलर) पर है। यह संगठन विश्व में वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन, जी-8, जी-20 देशों का हिस्सा रहा है। यह विश्व में देशों के अब तकके सबसे बड़े संगठनों में से एक है। सही मायने के कहें तो यह आर्थिक महाशक्ति है। 

यूरोपियन देशों की अपनी नागरिकता है, अपना लीगल(कानूनी) सिस्टम है और सदस्य देश इस नियम से बंधे हैं, कई बार यह उस देश के क़ानून से विरोधाभास होने के बावजूद उस देश के न्यायालय यूरोपियन यूनियन के न्याय प्रणाली, क़ानून को ही ध्यान में रखकर फैसला दे सकते हैं। इससे किसी एक देश की मोनोपोली बंद हुई और यूरोप में शान्ति का एक नया दौर फैला। इन्ही प्रयासों से 2012 के विश्व शान्ति का नोबेल पुरस्कार यूरोपियन संघ को दिया गया। 

ब्रिटेन क्यों निकलना चाहता है?
ब्रिटेन विश्व की एक महाशक्ति है और वह यूरोपियन यूनियन में होने के बावजूद भी अपनी करेंसी पौंड को ही इस्तेमाल करता है। इस संधि से यूरोप के कई देशों के निवासी इंग्लैण्ड में जॉब के लिए बेरोकटोक आ जाते हैं। यात्रा, पर्यटन सभी का लाभ तो है लेकिन फिर भी ब्रिटेन को अपने देश के क़ानून के अनुसार इन्हें नियंत्रित करने का कोई अधिकार नहीं है। यूरोप से ब्रिटेन को जितना लाभ है उससे कहीं ज्यादा यूरोप को ब्रिटेन की जरुरत है। यदि ब्रिटेन इस संघ से निकल जाता है तब वह यूरोपियन संघ से जुड़ा भी रहेगा लेकिन व्यापारिक मामलों में अपना नियंत्रण भी रख सकेगा। फिलहाल ब्रिटेन का एक्सपोर्ट सबसे अधिक यूरोपियन संघ में ही होता है जो हमेशा ब्रिटेन के लिए फायदे का सौदा नहीं होता। 

ब्रिटेन का बढ़ता हुआ राजकोषीय घाटा एक दूसरा अपरोक्ष कारण है।  

यदि ब्रिटेन निकल जाता है?
भारत जैसे देशों को इसका लाभ मिलेगा क्योंकि उस स्थिति में ब्रिटेन यूरोपियन संघ से इतर आयात निर्यात, कच्चे माल, निर्माण सेक्टर में भारत और अमेरिका जैसे देशों से भी व्यापार कर सकेगा। वह यूरोपियन संघ के देशों से भी व्यापार कर सकेगा लेकिन अपनी खुद की शर्तों पर। भारत भी यूरोपियन संघ की शर्तों से इतर ब्रिटेन से सायबर सिक्युरिटी और सैन्य क्षेत्र में अपनी क्षमताओं को ब्रिटेन के साथ द्विपक्षीय वार्ता से ही निपटा लगा जो अभी यूरोपियन संघ के नियम के अनुसार कठिन है। ब्रिटेन के लिए यूरोपियन संघ से हुआ नुकसान मेक-इन-इण्डिया से सुधर सकता है। 

इन्वेस्टमेंट बैंकिंग सेक्टर सबसे बड़े खतरे में आएगा, ब्रिटेन के निकलने की स्थिति में एचएसबीसी पहले ही अपने ऑफिस को फ़्रांस ले जाने की बात कह चुका है, और इसी प्रकार की बात आई अन्य देशों ने भी कही है। 

उन सभी कंपनियों के मालिक अपने मूल देश के व्यापारिक प्रतिष्ठानों को सुदृढ़ रखने का प्रयास करेंगे और वह एमर्जिंग मार्केट से पैसा निकालने का प्रयास करेंगे। यकीन मानिए चौबीस जून को विश्व के शेयर बाज़ार जबरदस्त उठापटक मचाएंगे। अगला हफ्ता बैंकिंग सेक्टर में काम करने वाले लोगों के लिए बहुत व्यस्त रहने वाला है। 

बहरहाल कई ऐसी यूरोपियन कम्पनियाँ हैं जिनका हेड-क्वार्टर ब्रिटेन में है और वह सभी अभी पशोपेश की स्थिति में हैं। ब्रिटेन के नागरिक 23 जून को निर्णय लेंगे और यह अभी तक के सबसे महत्तवपूर्ण जनमत संग्रहों में से एक होगा। और हाँ एक और बात, इस वोटिंग प्रक्रिया में भाग लेने वाले लगभग दस लाख वोटर भारतीय मूल के हैं सो देखते हैं यह एंग्लो-इन्डियन वर्ग क्या करता है और यूरोपियन संघ पर आये इस संकट का क्या होता है... 

शनिवार, 11 जून 2016

अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार, अमेरिका चीन और हम

आज कल देश विदेश में राजनैतिक उठापटक एक विचित्र मोड़ पर है, कल के दुश्मन आज के दोस्त हैं और कल के दोस्त आज तल्ख़ सम्बन्धों के दौर से गुज़र रहे हैं। दक्षिण एशिया किसी अखाड़े सरीखा या यूँ कहें की अमेरिका, यूरोप, रूस और चीन के लिए कूटनैतिक और वर्चस्व के लिए उपयुक्त मैदान बन रहा है। आइये आज इतिहास के कुछ पन्नों को टटोलते हुए उस बात को समझने का प्रयास करते हैं जिसने भारत को विश्व मंडल पर सबसे बड़े बाज़ार के रूप में खड़ा कर दिया है और भारत की इसी स्थिति ने उसे कई मित्र और शत्रु दिए हैं।

"आइये जानते हैं चीन और भारत एक ही समय तथाकथित स्वतन्त्र हुए लेकिन फिर भी चीन भारत से लगभग तीन गुनी बड़ी अर्थव्यवस्था कैसे बन गयी। शायद आर्थिक सुधार की प्रक्रिया एक वामपंथी देश ने एक लोकतान्त्रिक देश से पहले समझ ली और विश्व के मिजाज को भांपते हुए सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में ही आर्थिक सुधारों की नींव रख दी। चीन न सिर्फ विश्व के लिए पहली फैक्ट्री बन बैठा बल्कि उसने अपनी आर्थिक नीति को इस तरह से बदला कि अमेरिका जैसा देश भी अपने देश का कच्चा माल चीन भेज कर वहां से तैयार माल खरीदने के लिए मजबूर हो गया। एक ताला-चाभी से लेकर हैलीकॉप्टर के पुर्जे तक सब कुछ बनाने के लिए चीन ने अपना बाज़ार खोल दिया और स्थिति को इस कगार पर पहुंचा दिया कि अब चीन की सरकार जब अपने ब्याज दर को निर्धारित करती है तब अमेरिका का शेयर बाज़ार हिलने लगता है। एक समय के मित्र देश अब प्रतिद्वंदी बन रहे हैं और जो स्थिति एक समय पहले अमेरिका और सोवियत संघ की थी कुछ वैसी ही अब अमेरिका और चीन की हो रही है। मित्रों शीत युद्ध के दौरान विश्व में शक्ति के दो केंद्र थे, अमेरिका और सोवियत संघ। सभी छोटे देश इनमे से किसी एक के ही मित्र देश बने रह सकते थे। जब भारत और सोवियत संघ में बीच मित्रता जगजाहिर हुई तब पाकिस्तान ने अमेरिका से मित्रता के लिए पहल की। सोवियत संघ के खिलाफ मोर्चे की स्थिति में लिए अमेरिका को भी एक दोस्त की तलाश थी और इसी कारण से अमेरिका ने पाकिस्तान को अस्त्र दिए, शस्त्र दिए, आर्थिक सहायताएं दी। अमेरिका को साम्यवाद के विरुद्ध मोर्चा बनाने के लिए जिस प्रकार के सहभागी की ज़रूरत थी उसके लिए पाकिस्तान पूरी तरह से उपयुक्त था। उन्नीस सौ पैंसठ के युद्ध में पाकिस्तान को भारत के खिलाफ शुरूआती बढ़त मिली थी और अमेरिकी हथियारों से सुसज्जित पाकिस्तानी सेना ने ऑपरेशन द्वारिका में भयंकर तबाही मचाकर भारत को बैकफुट पर धकेल दिया था। वह तो शास्त्रीजी जैसा नेतृत्व और विश्व में सबसे साहसिक सैन्य बल होने के कारण भारत ने स्थिति को पलटकर पाकिस्तान और अमेरिका को धूल चटा दी थी। सन बहत्तर की लड़ाई में जब इंदिरा गांधी जैसी मजबूत इरादों वाली महिला ने पाकिस्तान को पूरी तरह कन्टेन करने का मन बना लिया था तब इंदिरा कैबिनेट के ही किसी विश्वासपात्र व्यक्ति की गद्दारी और सीआईए को सूचना लीक करने के कारण ही स्थिति बदल गयी थी। अमेरिका ने अपने मित्र पाकिस्तान को बचाने के लिए अपनी नौसेना का एक बेड़ा बंगाल की खाड़ी में रवाना किया था। सोवियत संघ ने सहायता का वायदा किया था लेकिन भारत अमेरिका से सीधी टक्कर लेने की स्थिति में नहीं था और इसी कारण लाख लोगों के आत्मसमर्पण करने के बाद भी उन्हें छोड़ा गया और भारत ने पश्चिमी पाकिस्तान से सेना वापस बुला ली।"

मित्रों कहने का सीधा अर्थ यह ही है कि अमेरिका भारत का कभी भी मित्र नहीं रहा है। यह सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए विश्व भर में समस्याएं खड़ी करता आया है। आज विश्व में विकाशशील देश बड़े बाज़ार बनकर उभरे हैं और इन देशों में बढ़ता हुआ समाज अपने आप में अमेरिका सरीखे देशों के लिए कमाई का एक बड़ा जरिया बनकर उभरे हैं। भारत को भी रोजगार चाहिए और यह निवेश के जरिये ही हो सकता है। नेहरू के औद्योगीकरण के मॉडल की दिशाहीन नीति को जब नरसिम्हाराव ने ठीक दिशा दी और फिर उसे ही अटल बिहारी और मनमोहन सरकार ने आगे बढ़ाया, जब भारत की विकास दर 11.4 प्रतिशत हुई तब भारत को विश्व ने गम्भीरता से लेना शुरू किया। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई कांग्रेस सरकार के समय में भारत और भारत के बारे में नजरिया बहुत ही नकारात्मक होता गया, जो क्षवि बन रही थी वह बिखरने लगी। सरकार में ही सत्ता के कई समानांतर केंद्र होते गए और लगभग हर रेटिंग एजेंसी ने भारत को नकारात्मक श्रेणी में डाल दिया। रोज नए भ्रष्टाचार के बाद 2014 लोकसभा चुनाव के बाद मोदी प्रधानमन्त्री बने तब उन्होंने सबसे पहले इसी परसेप्शन को ठीक करने की ज़िम्मेदारी उठाई। नकारात्मकता को दूर करते हुए उन्होंने भारत के सकारात्मक पहलु को उठाना शुरू किया, विश्व में दौरे किये और निवेश के लिए भारत को बाकायदा एक बाज़ार की तरह प्रस्तुत किया। इसका नतीजा महज़ दो वर्ष में भारत ने अमेरिका और चीन को पीछे छोड़कर निवेश के लिए सबसे आगे निकल गया। प्रगति के मार्ग पर विकासदर एक आंकड़ा भर नहीं है यह विश्व भर के लिए प्रगति का एक सन्देश होता है और यह बाहरी निवेश के लिए देश की क्षवि को बनाने के लिए निर्णायक हो सकता है।


बहरहाल अब भारत विश्व के बड़े देशों के लिए एक बाज़ार है, आज अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत के बढ़ते कदम से विश्व अचरज में है और अब शिक्षा क्षेत्र से लेकर विज्ञान, सूचना प्रौद्योगिकी तक पर जगह भारतीयों ने अपना डंका बजाया है। मोदी सरकार ने पिछले दो वर्षों में वैश्विक पटल पर कूटनीति का एक नया दौर शुरू किया और कांग्रेस के नकारात्मक विदेश नीति से इतर एक नए दौर का सूत्रपात किया। इस दौर में भारत ने हिन्द महासागर में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए सेशेल्स और मालदीव्स में केंद्र, ईरान में बंदरगाह की स्थापना ताकि पाकिस्तान को बिल्कुल अलग-थलग किया जा सके। अमेरिका भी भारत के सुर में सुर मिला रहा है और पहली बार पश्चिम पाकिस्तान के नहीं बल्कि भारत के पक्ष में खड़ा दिख रहा है।

मोदी के प्रयास भारत की कूटनीतिक सफलता के लिए बेहद जरूरी हैं और वह इसे बखूबी समझते भी हैं। देश का विपक्ष भले कुछ भी कहे लेकिन सत्य यही है कि आज अमेरिका ने भी भारत-अमेरिका नीति को मोदी-सिद्धांत कहकर सम्मान दिया है। भले बांग्लादेश से सीमा विवाद हो या पाकिस्तान को लेकर नीति हो हर मोर्चे पर मोदी पिछली सरकारों से कहीं बेहतर काम करते दिख रहे हैं। अमेरिका में रहकर भारत के बारे में पिछले दो सालों में बदले रवैये को मैंने स्वयं महसूस किया है सो इतना कह सकता हूँ कि विदेश नीति को लेकर मोदी से बेहतर फिलहाल भारत में तो कोई नहीं है

सच कहूं तो असली मायने में विश्व बदल रहा है और विश्व की सोच बदल रही है, इस बदलते हुए समय में भारत को रूढ़िवादी सोच से निकलकर आगे बढ़ना होगा, पूरे देश को सम्भालना है और एक नयी दिशा देनी है। सरकार कोई भी हो, यदि हर सामान्य से सामान्य भारतीय भी अपनी ज़िम्मेदारी समझे तो भी देश की तरक्की होती रहेगी। एक सामान्य नागरिक की तरह हमें अतिवाद से बचते हुए सकारात्मक रवैया बनाए रखना चाहिए।

रविवार, 22 मई 2016

भारत की "मौकापरस्त" विदेश-नीति

आज यूँ ही शाम को अमेरिका में घरेलु कामकाज के लिए बाई के बारे में विषय निकला और फिर देवयानी खोबरागड़े की चर्चा निकली। कैसे देवयानी को घरेलु नौकरानी को न्यूयॉर्क स्टेट के नियम के उल्लंघन और वीज़ा में बताये गए प्रति घंटे की मजदूरी से कहीं कम मजदूरी देने पर गिरफ्तार किया गया था और भारत अमेरिका के बीच शायद अब तक का सबसे बड़ा राजनयिक तनाव हो गया था। 

मैं विदेशी मामलों का कोई विशेषज्ञ नहीं लेकिन अपनी समझ से मुझे भारत की विदेश नीति में बहुत कुछ विरोधाभास नज़र आता है, यह एकदम साफ़ नहीं है और यह हमेशा भेदभाव से भरी हुई रही है। यदि आपको इसमें कोई संदेह है तो फिर आप दो मामले ले लीजिये... देवयानी खोबरागड़े और कैप्टन सौरभ कालिया... आप यह पूछ सकते हैं कि देवयानी और कैप्टन के मामले में समानता क्या है? तो मित्रों एक गम्भीर समानता है और यह दोनों की मुद्दे भारत की विदेश नीति से जुड़े हुए हैं। 

आइए एक तुलना करते हैं, देवयानी और कैप्टन के मामले की: 

कैप्टन कालिया: 
1. पंद्रह मई 1999 को भारतीय सेना के कैप्टन कालिया, पांच सिपाही: (अर्जुन राम, भंवर लाल, भीका राम, मूला राम और नरेश सिंह) के साथ पेट्रोलिंग में थे जब उन्हें पाकिस्तानी फौजियों ने पकड़ लिया था। 
2. प्रताड़ना: (यहाँ कुछ सवेदनशील शब्द हैं सो कृपया ध्यान से पढ़े): पोस्ट-मोर्टेम रिपोर्ट से जाहिर हुआ कि सैनिकों के शरीर पर सिगरेट से दागे जाने के कई निशान थे, आँख और कान को लोहे की रॉड से फोड़ दिया गया था। दांत, सर, और लगभग सभी हड्डियाँ तोड़ दी गयी थी, होंठ और नाक और अंग काट दिए गए थे। ऐसे भयंकर अमानवीय प्रताड़ना के बाद सर में गोली मार दी गयी थी। 


भारत का रवैया? 

1. कैप्टन के पिता को अपने ही बेटे को इन्साफ दिलाने के लिए लड़ाई शुरू करनी पड़ी, किसी भी राजनयिक का कोई समर्थन नहीं मिला। 
2. कैप्टन के मामले को संयुक्त राष्ट्र ले जाने की मांग को लेकर कितनी ही चिट्ठियां लिखी गयी, कितने ही प्रोटेस्ट हुए - लेकिन कभी किसी भी सरकार ने इसको लेकर गम्भीरता पूर्वक आचरण नहीं किया। 

कैप्टन के पिता इस मामले को लेकर आज भी इन्साफ के लिए लड़ रहे हैं, उन्होंने ठीक ही कहा था "मैं भारतीय होने पर शर्मिंदा हूँ, इस देश के राजनेता रीढ़ की हड्डी के बिना ही हैं"

उन्होंने कई विदेशी देशों को भी संपर्क किया लेकिन मामला जून 2015 में मोदी सरकार के द्वारा बंद कर दिए जाने के बाद ख़त्म हो गया। कैप्टन को लेकर भारत सरकार का रवैया बेहद बचकाना और निराशाजनक था, धिक्कार है भारत के सभी राजनेताओं पर..... 








देवयानी खोब्रागडे 
1. दिसंबर 2013 में न्यूयॉर्क स्टेट नियम के अनुसार वीज़ा को लेकर की गयी एक धोखाधड़ी और घरेलू नौकरानी के बारे गलत जानकारी दी जाने को लेकर गिरफ्तारी हुई
2. देवयानी को गिरफ्तार किया गया और उन्हें जिस धारा में बुक किया गया उसमे बॉडी-कैविटी सर्च "स्ट्रिप सर्च" किया जा सकता था। 


भारत का रवैया:

1. भारत ने दिल्ली में स्थित अमेरिकी दूतावास के आगे सुरक्षा बैरियर हटा लिए
2. भारत ने अमेरिका से बिना किसी शर्त के माफ़ी मांगने और मामला वापस लेने के लिए कहा, और भारत ने भारत में अमेरिकी दूतावास के कर्मचारियों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए.... महज़ एक हफ्ते में अमेरिका ने मामला वापस लिया और यह गतिरोध ख़त्म हो गया। इस जीत में भारत की एक बहुत बड़ी हार थी क्योंकि किसी ने इसकी जांच नहीं की कि देवयानी की गलती थी या नहीं? मैडम का आदर्श घोटाले से कोई लेना देना है? मैडम को फ़्लैट किस सुविधा के तहत मिला?  

इन दोनों स्थितियों की तुलना आज मैंने इसलिए की क्योंकि यही हमारा सत्य है, देवयानी दलित समुदाय से आती हैं, जो कि वोट बैंक है, सौरभ कालिया फौजी थे और कोई वोट-बैंक नहीं थे। जब जब कैप्टन सौरभ कालिया का ज़िक्र आता है, खुद के भारतीय होने पर धिक्कार होता है, वाकई वोट बैंक नहीं तो न इन्साफ मिलेगा और न कोई सुनवाई होगी... भले आप कैप्टन कालिया हों या डॉक्टर नारंग। 

धिक्कार ऐसे लोकतंत्र पर!!! 

बुधवार, 13 अप्रैल 2016

वोटबैंक और सरकारें..

राजनीति में कई बार ऐसी स्थिति आ जाती है जब निर्णय लेने में दिक्कत होती है। यह एक दुर्गम स्थिति होती है और जो कोई शासक सही समय पर सही निर्णय ले पाता है उसकी वैसी ही ऐतेहासिक विवेचना होती है। उदाहरण के लिए उन्नीस सौ इकहत्तर की लड़ाई में इंदिरा गाँधी के फैसलों का हम सब गर्व करते हैं, शास्त्रीजी का "जय जवान और जय किसान" हमारे लिए मन्त्र बने और देश इनके पीछे खड़ा हुआ। जब खाने को अन्न नहीं है तब भूखे रहकर स्वाबलंबन का पाठ पढ़ाने वाले शास्त्रीजी देश के महानतम प्रधानमन्त्री हैं।

हमने ठीक इसके इतर वोट बैंक की राजनीति को चमकाने वाले नेहरू और राजीव गांधी को भी देखा है और मनमोहन सरीखे पढ़े लिखे बुद्धिजीवी प्रधानमन्त्री को भी देखा है। इन तीनों में समानता यह थी कि यह भारत की जमीनी हकीकत से अनजान थे और यह तीनों ही कमज़ोर और नाजुक मौकों पर सोच विचारकर सर्वसम्मति से "कोई निर्णय न लेने" के निर्णय लेते थे। आज माओवाद चरम पर है, वामपंथी आतंकवाद किसी घुन की तरह फैला हुआ है, इसे पालने वाली कांग्रेस फिर से इसको मोदी सरकार को अस्थिर करने में करना चाहती है और यह इनकी हरकतों से दिख रहा है। किसी को अगर समझना हो तो आप सिर्फ इन तीन चार मुद्दों पर ध्यान दीजिये:

नेपाल जैसे देश के साथ भी भारत की किसी जल संधि का न होना
बांग्लादेश के साथ सीमा विवाद
पाकिस्तान और चीन के साथ विवाद
कश्मीर की समस्या

लगभग इन सभी समस्याओं की जड़ नेहरू ही हैं। कश्मीर की धारा 370 नेहरू की नाकामी का सबसे बड़ा प्रमाण पत्र है। देश की जमीनी हकीकत से अनजान, राष्ट्रवाद के सिद्धांत और विचार से कोसों दूर कोई व्यभिचारी, सत्तालोलुप व्यक्ति जब सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर जा बैठे तब स्थिति ऐसी ही होती है। इतिहास को चाहे जितना भी बदलने का प्रयास हो लेकिन नेहरू देश के सबसे बड़े अपराधी हैं और रहेंगे। चोर लुटेरे का खानदान आज भी लूट खसोट के तरीके आजमा रहा है और इसमें उसकी मदद मीडियाई दलाल बखूबी कर रहे हैं। वोट बैंक के लिए सिर्फ एक जाति के पीछे भागना, फतवे निकलवाना और सत्ता की मलाई खाना। एक बार राजीव गांधी बोले थे न कि एक रुपये में से सिर्फ पांच पैसा नीचे जमीन तक आता है और बाकी सब नेतागिरी खा जाता है लेकिन उन्होंने इस पंचानवे पैसे की लूट को रोकने के लिये कुछ लिया? उलटे आदिल शहरयार के बदले एंडरसन को भगा दिया? बोफोर्स की दलाली खा गए? इमाम का फतवा आता रहा, सत्ता चलती रही मलाई खाई जाती रही। मीडियाई दलाल सत्ता के गलियारे में सत्ता के चारण भाट बनकर बीन बजाते रहे। धीरे धीरे यह मीडिया सत्ताधारी दल के किसी माउथपीस सरीखी बन गयी। इनाम बेचे जाने लगे, सत्ता के गुण गाने वाले और चाटुकारों को साहित्य अकादमी मिलने लगी और वोट बैंक की राजनीति को चमकाने की आदत किसी व्यसन की तरह इन बुद्धिजीवियों के दिमाग में भर गयी। आज का मीडिया इसी रोग से पीड़ित है और इसी रोग के कारण आप कभी इस दलाल मीडिया को गोधरा पर रोते नहीं देखेंगे लेकिन उन्हें गुजरात पर चीख चीख कर चिल्लाते देखेंगे। यह रोग किसी महामारी की तरह अब कई जगह फ़ैल गया है और कई पढ़े लिखे मास्टर, लेखक, कार्टूनिस्ट और व्यंग्यकार भी इसके शिकार हैं। आज की मीडिया के प्राइम टाइम में बैठे बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई, रबिश कुमार और सागरिका घोष जैसे न्यूज़ रीडर इसी रोग का शिकार हैं। आज बुद्धिजीवी शब्द किसी उपहास सरीखा बन गया है और इसी प्रकार के लोग इसके ज़िम्मेदार हैं जो कन्हैया जैसों को हीरो बनाते हैं? बहरहाल सत्ता की चकाचौंध में जनता के हित की अनदेखी पहले भी होती रही है और अब भी हो रही है, केजरीवाल जैसे नेता सत्ता के मोह में इतने अंधे हैं कि क्या कहा जाए। यह बेहद बचकाना बात है कि एक छोटे से अपूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री अपने पास कोई विभाग नहीं रखता लेकिन प्रचार के लिए करोड़ों उड़ा देता है। कोई दिमाग वाला व्यक्ति इस बात को जस्टिफाई नहीं कर सकता है कि आखिर दिल्ली के प्रायवेट स्कूलों का नोटिस मुंगेर, मुजफ्फरपुर, पूर्णिया और बेल्लारी में क्यों छप रहा है। वैसे वैचारिक उहापोह की स्थिति में भाजपा भी है, सत्ता पाकर आज भाजपा भी कई बातें समझना नहीं चाह रही है और कांग्रेसी तरीकों पर उतर आई है। यह कांग्रेसी तरीके उसे वोट बैंक की राजनीति में मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए मजबूर कर रहे हैं। कश्मीर के एनआईटी पर भाजपा का रवैया बेहद निराशाजनक है, चीन का भारत के आतंकवाद के विरोध में आये प्रस्ताव को वीटो कर देना और इसके बाद भी मोदी का मेक इन इण्डिया में चीनी कम्पनियो को रियायत देना। कोई बयान न देकर चीन पर चुप्पी साध लेना बहुत गंभीर मसला है।

भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि यहाँ अस्सी प्रतिशत हिन्दू वोट बैंक नहीं है लेकिन चौदह प्रतिशत मुस्लिम वोट संगठित बैंक हैं। यह इमाम के फतवे पर वोट डालने वाली कौम का तब तक भला नहीं होगा जब तक वह इससे ऊपर नहीं आएगी। इस समाज के ठेकेदार भारतीय संस्कृति और इतिहास से पूरी तरह अनजान हैं इनका यह राष्ट्रविरोधी रवैया इसलिए आता है क्योंकि यह भारतीयों के पैसे या चंदे से नहीं चलते बल्कि यह अरब से आये पैसे से अपनी दुकान चलाते हैं। सन सैतालीस के बाद एकदम यह स्थिति नहीं आई और शुरूआती दिनों में यह भारतीयों के ही चंदे से चलती थी, इसी कारण शुरूआती दिनों में हिन्दू मुस्लिम एकता की कई मिसालें देखने को मिली। बरेली शहर में चुन्नामियां का बनाया लक्ष्मी नारायण मंदिर या फिर बनारस में उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का काशी विश्वनाथ की सेवा में शहनाई वादन कुछ इसी प्रकार की मिसालें हैं। अब स्थिति बिगड़ चुकी है क्योंकि मुस्लिम मस्ज़िदों की फंडिंग वह कर रहे हैं जो भारत विरोधी हैं। मैं इन मौलवियों, फतवे शिरोमणियों का विरोध इसलिये भी करता हूँ क्योंकि यह कभी भी खुले तौर पर आईएसआईएस जैसे संगठनों के खिलाफ फ़तवा नहीं देते लेकिन भाजपा को वोट देने के खिलाफ फ़तवा जरूर दे देते हैं। अब भारत के मुसलमानो का रिमोट अरबी और पाकिस्तानी हाथ में होना और इसीलिए जब भारत का कोई भी राजनैतिक दल कश्मीर पर भारत के रुख का विरोध करेगा, वह इन ठेकेदारों की आँख का तारा बन जाएगा। जो कोई भारतीय संस्कृति की बात कहेगा वह इनके लिए रास्ते का रोड़ा और काँटा बन जाएगा। अजीब सी वैचारिक लड़ाई है, जिसमे व्यक्तिगत स्वार्थ हैं, वोट बैंक है, लूट है, आतंकवाद का समर्थन है लेकिन देश का राष्ट्रवाद कहीं नहीं है। जब तक देश के सभी नागरिकों का भारतीयकरण नहीं होगा कोई ख़ास फायदा नहीं होगा। राजनीति से धर्म को दूर करना जरूरी है। मुस्लिम धर्म गुरुओं और मौलवी का चुनाव को लेकर दिया जाने वाला फ़तवा बंद होना चाहिए क्योंकि यह असंवैधानिक है। वैसे इसकी उम्मीद काफी कम है और मुझे नहीं लगता है कि ऐसा कभी होगा क्योंकि यही इन मौलवियों की कमाई का मुख्य साधन है। आप यदि इनकी दुकान बंद कराने का प्रयास करेंगे तो फिर एक नया मालदा एक नया पूर्णिया हो जायेगा और फिर इनके समर्थन में राष्ट्रविरोधी और इसी विदेशी फंड से चलने वाला मीडिया तो है ही।

गजब देश है अपना!!

बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

1971 भारत की हार या जीत?

1971 की लड़ाई वास्तव में भारत के लिए एक बहुत बड़ी जीत थी, पूरा पश्चिम (अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस) सभी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र पर चढ़ाई करने को आतुर थे, बंगाल की खाड़ी में अमेरिकी युध्दपोत आक्रमण को तैयार थे, ब्रिटेन की पनडुब्बियां भारतीय समुद्र के इर्द गिर्द चक्कर लगाने और पाकिस्तान की मदद को तैयार थे, चीन उत्तरी रास्ते से भारत को घेरने की तैयारी में था। फ़्रांस पाकियों को सस्ते हथियार देने को तैयार था। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि अमेरिका और उसके मित्र देश नाज़ी जर्मनी के बाद विश्व के सबसे बड़े नरसंहार के ज़िम्मेदार देश को बचाने के लिए इतने पगलाये क्यों थे? यह हमारी विदेश नीति की असफलता थी या शीत युद्ध के दौरान रूस के साथ हमारी करीबी इन देशों की कुढ़न का कारण थी?  आखिर इंदिरा गांधी जैसी महिला को युद्ध वापस क्यों लेना पड़ा, करांची और लाहौर तक कब्जाने के बाद आखिर हम वापस क्यों आये, आखिर इतने सपोर्ट के बाद भी पाकिस्तान पिट कैसे गया....
क्या हुआ था उन दिनो... वर्ष २०१३ में अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने कुछ पत्रों को और चिट्ठियों को डिक्लसिफाई किया और इस समय के ओबामा प्रशासन ने उस समय की अमेरिकी नीति की आलोचना भी की। यह अमेरिका के लिए एक अजीब सी बात थी कि उन्होंने राजनीतिक समझदारी का परिचय देने की जगह शीत युद्ध में सोवियस संघ के किसी भी मित्र देश को बरबाद करने की ही राह चुनी थी। 

१९७१ के पहले हुआ क्या था?
23 मार्च 1956 में पाकिस्तान ने अपना संविधान बनाया और इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान बना। इस संविधान के तहत पहले चुनाव 1958 में हुए जरूर लेकिन मार्शल लॉ लगाकर पाकिस्तानी सेना ने ही कब्ज़ा बनाये रखा। जनरल अयूब खां पाकिस्तान के कमांडर-इन-चीफ बने रहे। जनरल अयूब खां ने नए संविधान सभा का गठन किया और 29 अप्रैल 1961 में पाकिस्तान का नया संविधान बना। इस संविधान में रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान और अमेरिकी ढांचे से मिलता जुलता प्रेसिडेंशियल सिस्टम अपना लिया गया। इस संविधान के तहत राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए जो 1965 में अयूब खां साहब की जीत से ख़त्म हुई। अयूब खान की विपक्षी पार्टी आवामी लीग और उसके नेता शेख-मुजीबुर्रहमान को पूर्वी पाकिस्तान में बड़ा समर्थन मिला। इस विरोध को कुचलने के लिए और बंगालियों को एकत्रित करने के लिए अयूब खान ने शेख मुजीबुर्रहमान पर देशद्रोह का मामला दर्ज कर अपना दमनचक्र शुरू कर दिया। 1969 तक अयूब खान के बाद जनरल याह्या खान ने मार्शल लॉ लगाकर संविधान को भंग कर दिया। 31 मार्च 1970 में जनरल और राष्ट्रपति याह्या खां ने एक लीगल सिस्टम जिसमे चुनावी प्रक्रिया राज्यों का गठन (पंजाब, सिंह, बलूचिस्तान और नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस) हुआ। इसमें आबादी के हिसाब से निर्वाचन क्षेत्रों को गठन हुआ और पूर्वी पाकिस्तान के हिस्से में लगभग पश्चिमी पाकिस्तान जितनी ही सीटें मिल गयीं। (पूर्वी और पश्चिमी) के पहले आम चुनाव 1970 में हुए और 300 सदस्यों वाली इनकी नेशनल असेम्बली में आवामी लीग को निर्णायक जीत (160 सीटें) मिली और जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तानी पीपल्स पार्टी सिर्फ अस्सी सीटों के साथ दुसरे नंबर पर खिसक गयी। 
पश्चिमी पाकिस्तान के जुल्फिकार अली भुट्टो ने पूर्वी पाकिस्तान की इस आवामी लीग की जीत को मानने से इंकार कर दिया और जनरल याह्या खां ने सेना का मार्शल लॉ लगाकर फिर से संसद को भंग कर दिया। इसके ठीक एक महीने के बाद पूर्वी पाकिस्तान में भोला साइक्लोन आया और उसमे लगभग पांच लाख लोग मारे गए। पश्चिमी पाकिस्तान ने किसी भी प्रकार की सहायता से दूरी बना ली और बड़ी संख्या में लोगों का भारत में पलायन शुरू हुआ। पाकिस्तानी फौजों ने दमनचक्र शुरू किया। सारे बंगाली नेता या तो मार दिए जाने लगे या फिर नज़रबंद कर दिए जाने लगे। उन्होंने ऑपरेशन सर्च-लाइट चलाकर पूर्वी पाकिस्तान के सभी बड़े नेताओं को मारना शुरू किया। इस दौरान पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में भयंकर नरसंहार किया और लगभग एक करोड़ लोग भारत में पलायन करने को मजबूर हुए। भारत ने अंतराष्ट्रीय मंचों पर इस समस्या को उठाया लेकिन किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। जनरल टिक्का खान जिसे बलूचिस्तान में दमन के लिए कई पदक मिल चुके थे ने पूर्वी मोर्चे पर अपना दमन शुरू किया। इसने अपनी सेना को आदेश दिया था, "मुझे लोग नहीं जमीन चाहिए तो जमीन साफ़ करो लोगों को साफ़ करो। "26 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान में तैनात पाकिस्तानी सेना के मेजर जियाउर्रहमान ने बांग्लादेश की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और उसके अगले दिन अंतराष्ट्रीय समुदाय से निराश इंदिरा गांधी और ने इस मुक्ति संग्राम और बांग्लादेश के स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन की घोषणा कर दी। भारत ने मुक्तिबाहिनी को ट्रेनिंग और गुरिल्ला वॉर सिखाना शुरू किया और इस आंदोलन के लिए पूरी तरह से समर्थन कर दिया। यहाँ एक बात समझने वाली है और वह यह कि यदि विश्व समुदाय ने इंदिरा गांधी को सुना होता तो शायद भारत को इस हद तक नहीं जाना पड़ता। 
नरसंहार को रोकना भारतीय सेना और मुक्ति बाहिनी का पहला काम था और उन्होंने यह काम बखूबी करना शुरू भी किया। अक्टूबर आते आते पाकिस्तानी फ़ौज कमज़ोर पड़ने लगी और पश्चिमी पाकिस्तान भारत पर आक्रमण की तैयारी का सोचने लगा। 

1971 का युद्ध 
23 नवम्बर को पाकिस्तानी जनरल याह्या खान ने आपातकाल की घोषणा करके सबको युद्ध के लिए तैयार रहने को कह दिया, अब युद्ध निश्चित हो गया था। पश्चिमी देशों, संयुक्त राष्ट्र किसी ने भी इसमें दखल देने की अभी तक कोशिश नहीं की थी। तीन दिसंबर को पाकिस्तानी वायु सेना ने भारत के पांच हवाई ठिकानों पर हमले करके युद्ध की शुरुआत कर दी और अब भारत को भी तैयार होना था। 

भारत 1965 के पाकिस्तान के ऑपरेशन द्वारिका से काफी कुछ संभल चुका था और उसने इस बार पाकिस्तान को नौसेना के फ्रंट पर सबसे पहले मारना शुरू किया। यहाँ मैं आपको बता दूँ की सात सितम्बर 1965 में पाकिस्तानी नौसेना के आठ जहानों और पनडुब्बी ग़ाज़ी ने भयंकर उत्पात मचाया था और यह भारतीय नौसेना की पहली हार थी। हाँ बाद में इन सभी जहाजों को सन 71 की लड़ाई में भारत ने नष्ट कर दिया था और इस गाज़ी को भी आईएनएस राजपूत ने 1971 में विशाखापट्टनम पोर्ट के पास डूबा दिया था। 

बहरहाल 1971 में भारत ने पाकिस्तानी नौसैनिक क्षेत्र को ऑपरेशन ट्रिडेंट, और ऑपरेशन पाइथन के जरिये एकदम बरबाद कर दिया था। युद्ध के महज़ पांच दिनों में पाकिस्तानी नौसेना ख़त्म हो चुकी थी और कराची पोर्ट, ईंधन और कई अन्य स्रोतों को भारत ने पूरी तरह से बरबाद कर दिया था। उसके बाद थल, वायुसेना ने जिस तरह पाकिस्तानी सेना को पीटा उसने विश्व को चकित कर दिया। अमेरिका और फ़्रांस के हथियार भारतीयों के रण कौशल के आगे बेकार साबित हुए। 


16 दिसंबर 1971 को पूर्वी पाकिस्तान एक नए देश बांग्लादेश का रूप ले चुका था और लगभग नब्बे हज़ार युद्ध बंदियों के साथ पाकिस्तान एक बहुत ही निराशाजनक हार झेल रहा था। 

विश्व समुदाय और भारत 
यहाँ तक तो सब ठीक लग रहा है लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। पूरे विश्व में भारत ने कभी भी अपने डिप्लोमेटिक रिश्ते सुधारने की बात की ही नहीं। इस युद्ध में भारत के पक्ष में सोवियत संघ के अलावा कोई भी देश नहीं था। यहाँ तक कि श्रीलंका जैसा देश भी पश्चिमी देशों के दवाब में पाकिस्तानी जहाजों को तेल भरने देने की इजाजत दे रहा था। 

अब एक नज़र डालते हैं अमेरिकी सरकार द्वारा डी-क्लासिफाई किये डॉक्यूमेंट पर। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन और तत्कालीन अमेरिकी रक्षा सलाहकार किसिंजर के बीच हुए वार्तालाप पर, जिसमे उन्होंने पाकिस्तान को हर संभव मदद की बात कही। उन्होंने चीन पर दवाब बनाने और भारत को उत्तर में घेरने के लिए कहने की बात कही, फ्रांस को सस्ते में हथियार देने की बात कही और ब्रिटेन को पाकिस्तानी नौसेना की मदद करने को कहा।  

Of course, no country, not even the United States, can prevent massacres everywhere in the world — but this was a close American ally, which prized its warm relationship with the United States and used American weapons and military supplies against its own people.

उन्होंने अपनी सेवंथ फ्लीट को भारत के खिलाफ युद्द के लिए बंगाल की खाड़ी भेजा, यह डॉक्यूमेंट कुछ यह कहता है...   

"The assessment of our embassy reveal (sic) that the decision to brand India as an 'aggressor' and to send the 7th Fleet to the Bay of Bengal was taken personally by Nixon," says the note. The note further says, the Indian embassy: "feel (sic) that the bomber force aboard the Enterprise had the US President's authority to undertake bombing of Indian Army's communications, if necessary."

संयुक्त राष्ट्र में दिसंबर 1971 में भारत के खिलाफ अमेरिका एक प्रस्ताव लाया (S/10446/Rev. 1) जिसमे आर्थिक प्रतिबन्ध से लेकर, युद्ध छेड़ने की बात तक कही गयी जिसे सोवियत संघ ने वीटो कर दिया और अमेरिकी नीयत के खिलाफ भारत का पुरजोर तरीके से समर्थन किया। उन्होंने चीन को इस कदर डरा दिया की अगर अमेरिका की इच्छा को मानते हुए चीन में उत्तर में भारत पर आक्रमण किया तो फिर सोवियत संघ चीन को घेर लेगा। इसी तरह अमेरिका चाहता था कि खाड़ी के देश भी पाकिस्तान का समर्थन करें और उन सभी को सोवियत संघ ने डरा दिया की भारत पर हमला सोवियत संघ पर हमला होगा और भारत इस समर्थन के कारण ही इस लड़ाई में इतना आक्रामक था। मैं राष्ट्रपति निक्सन और किसिंजर के बीच हुए वार्तालाप को नहीं लिख सकता क्योंकि वह बहुत ही आपत्ति जनक है लेकिन यह समझना ज़रूर है की भारत विश्व समुदाय में सोवियत संघ के अलावा हर देश के अछूत था। पश्चिम के तथाकथित लोकतांत्रिक प्रणाली पर चलने वाले शांतिप्रिय देश लोकतांत्रिक भारत पर हमले और नाजी आंदोलन के बाद के सबसे भयंकर नरसंहार के ज़िम्मेदार पाकिस्तान के समर्थन के लिए इस कदर पगलाए थे। 

भारत की सरकार के लिए यह विदेश नीति की एक भयंकर हार थी, दरअसल नेहरू ने कभी इस दिशा में सोचा ही नहीं और शास्त्रीजी कुछ कर पाते उसके पहले ही साज़िश का शिकार बन गए। इंदिरा गांधी ने भी कमोबेश उसी नीति को चालू रखा और हम संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी बर्चस्व के खिलाफ कभी जा ही नहीं पाये। इस युद्ध में भी पाकिस्तान बुरी तरह से पस्त था और सोवियत संघ का भारत को पूर्ण समर्थन, अमेरिकी सैन्य बलों के किसी भी दुस्साहस के लिए भारत के समर्थन में मास्को का इस तरह से खड़ा हो जाना एक बहुत बड़ी वजह थी वरना बंगाल की खाड़ी में भारत के खिलाफ अमेरिकी युद्धपोत पूरी सजगता से लगे हुए थे। शायद अमेरिका और सोवियत संघ एक दुसरे के खिलाफ युद्ध लड़ने की स्थिति में नहीं थे और यह सिर्फ डराने और दवाब बनाने के लिए अधिक था। 

मेरे विचार से 1971 भारत के लिए महत्त्वपूर्ण जीत और भारतीय विदेश नीति के लिए बहुत बड़ी हार थी। विश्व समुदाय को इस नरसंहार के विरोध में खड़ा होना चाहिए था और भारत का समर्थन करना चाहिए था। 

कुछ महत्त्वपूर्व लिंक्स :

http://www.thepoliticalindian.com/bangladesh-victory-day/

http://www.rediff.com/news/slide-show/slide-show-1-three-indian-blunders-in-the-1971-war/20111212.htm

http://timesofindia.indiatimes.com/india/US-forces-had-orders-to-target-Indian-Army-in-1971/articleshow/10625404.cms



गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

निष्पक्ष पत्रकारिता?

पत्रकार कभी भी निष्पक्ष राजनीतिक सोच नहीं रख सकता क्योंकि वह भी एक मनुष्य है और उसका भी अपना एक दृष्टिकोण है। इस दृष्टिकोण में वह किसी न किसी सोच से प्रभावित होगा ही, वह भले कोई भी राजनैतिक दल हो। कोई पत्रकार निष्पक्ष रहने का प्रयास करे वह या तो झूठ बोलकर सामने वाले को खुश रखने का प्रयास करेगा या फिर सत्ता परिवर्तन के बाद विपक्षी दल के सत्ता में आने के बाद खुद की दुकानदारी चलाने के लिए चाटुकारी करेगा। फ़िलहाल भारत में हमेशा से यही होता आया, कांग्रेसी सोच वाले पत्रकार, एमएलए, एमपी के रिश्तेदार पत्रकारिता को चमकाए रहे और खबरिया दलाली चमकती रही। निष्पक्षता का तो खैर जाने की दीजिये लेकिन मुख्य रूप से पत्रकारिता सत्ता की गलियारों में रेड कार्पेट पर सुख और सुकून से चलती रही। प्रधानमन्त्री के साथ विदेश यात्राओं में जाना, इंटरव्यू के नाम पर मौज उड़ाना, पूरी ऐश चलती रही।

वामपंथी सोच वाले पत्रकारिता के विद्यार्थियों का तो कहना ही क्या! यह तो पैदा ही क्रान्ति करने के लिए हुए थे सो क्रांति ही करेंगे। हर जगह क्रांति, बस स्टैंड में क्रांति, बस में जगह के लिए क्रांति, स्कूल में क्रांति, घर में बाहर में हर जगह क्रांति ही क्रांति, इस क्रांतिकारी सोच के जलजले को शांत करने के लिए एक पेग लेना ज़रूरी हो जाता है सो एक स्कॉच की बोतल से इस क्रांतिकारी का दिमाग शांत होता है। यह क्रांति फिर स्त्री पुरुष की समानता के नाम पर किसी भी स्तर पर जाने को तैयार होती है, अब वह सब जायज है क्योंकि क्रांति तो करनी ही है न, क्रांति की ज्वाला को शांत करने के लिए कभी शराब तो कभी अफीम तो कभी पोर्न खाया पिया और देखा जाता है... यह सब करने के बाद ही क्रांतिकारी के अंदर की आग शांत होती है। इस क्रन्तिकारी सोच में दाढ़ी बनाने, नहाने, साफ़ सफाई जैसी छोटी और तुच्छ चीजो के लिए समय ही कहाँ मिल पाता है सो सभी वामी विद्यार्थी एकदम स्कॉलर दिखने के लिए दाढ़ी बढ़ाए रहते हैं, यह उनका ड्रेस कोड है, जो जितना अस्त व्यस्त दिखेगा उसे पत्रकारिता उतना ही अच्छा प्लेसमेंट मिलेगा।

जब इनकी क्रन्तिकारी सोच देश की सीमाओं के परे पाकिस्तान परस्ती पर उतर जाती है तब हम जैसों को तकलीफ होने लगती है। मामला देश के सम्मान से जुड़ा हुआ हो तब कोई समझौता नहीं...

समझ में आया या नहीं?