बुधवार, 22 जून 2016

यूरोप का नया संकट यूरोपियन संघ...

आजकल चर्चा में है यूरोपियन संघ... यूरोप की सबसे बड़ी समस्या बन गया है यह। आइए समझते हैं कि आखिर यूरोपियन संघ क्या है और आखिर ब्रिटेन इससे निकलना क्यों चाहता है। और इस उठापटक से भारत जैसे देशों पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
यूरोपियन संघ: 4,324,782 वर्ग किमी, लगभग पचास करोड़ की आबादी, यूरोप के अठाइस समृद्ध देशों का एक ऐसा संघ जो इन देशों के बीच व्यापार, पर्यटन, नौकरी करने के लिए सुविधाएं देता है। यूरोपियन देशों के बीच बेरोकटोक यातायात और बिना वीज़ा के घूमने और काम करने की सुविधा देता है। इस यूरोपियन संघ की राजधानी ब्रुसेल्स में है और लन्दन और पेरिस दो सबसे बड़े देश हैं। व्यापारिक मुद्दों पर इस संघ का अपना नियम है और यूरोपियन संघ के सभी देश इन्ही नियम से बंधे हुए हैं। यदि कोई देश अपने देश के लिए कोई बदलाव चाहता है तब उसे यूरोपियन यूनियन को प्रस्ताव भेजना होगा और फिर सभी सदस्यों की मंज़ूरी लेनी होगी। 

इसके अठारह सदस्य करेंसी के लिए यूरो का प्रयोग करते हैं। यूरोपियन यूनियन नॉमिनल जीडीपी के अनुसार विश्व की कुल अर्थव्यवस्था का चौबीस प्रतिशत और परचेज पॉवर पैरिटी के अनुसार दुसरे स्थान(अठारह ट्रिलियन डॉलर) पर है। यह संगठन विश्व में वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन, जी-8, जी-20 देशों का हिस्सा रहा है। यह विश्व में देशों के अब तकके सबसे बड़े संगठनों में से एक है। सही मायने के कहें तो यह आर्थिक महाशक्ति है। 

यूरोपियन देशों की अपनी नागरिकता है, अपना लीगल(कानूनी) सिस्टम है और सदस्य देश इस नियम से बंधे हैं, कई बार यह उस देश के क़ानून से विरोधाभास होने के बावजूद उस देश के न्यायालय यूरोपियन यूनियन के न्याय प्रणाली, क़ानून को ही ध्यान में रखकर फैसला दे सकते हैं। इससे किसी एक देश की मोनोपोली बंद हुई और यूरोप में शान्ति का एक नया दौर फैला। इन्ही प्रयासों से 2012 के विश्व शान्ति का नोबेल पुरस्कार यूरोपियन संघ को दिया गया। 

ब्रिटेन क्यों निकलना चाहता है?
ब्रिटेन विश्व की एक महाशक्ति है और वह यूरोपियन यूनियन में होने के बावजूद भी अपनी करेंसी पौंड को ही इस्तेमाल करता है। इस संधि से यूरोप के कई देशों के निवासी इंग्लैण्ड में जॉब के लिए बेरोकटोक आ जाते हैं। यात्रा, पर्यटन सभी का लाभ तो है लेकिन फिर भी ब्रिटेन को अपने देश के क़ानून के अनुसार इन्हें नियंत्रित करने का कोई अधिकार नहीं है। यूरोप से ब्रिटेन को जितना लाभ है उससे कहीं ज्यादा यूरोप को ब्रिटेन की जरुरत है। यदि ब्रिटेन इस संघ से निकल जाता है तब वह यूरोपियन संघ से जुड़ा भी रहेगा लेकिन व्यापारिक मामलों में अपना नियंत्रण भी रख सकेगा। फिलहाल ब्रिटेन का एक्सपोर्ट सबसे अधिक यूरोपियन संघ में ही होता है जो हमेशा ब्रिटेन के लिए फायदे का सौदा नहीं होता। 

ब्रिटेन का बढ़ता हुआ राजकोषीय घाटा एक दूसरा अपरोक्ष कारण है।  

यदि ब्रिटेन निकल जाता है?
भारत जैसे देशों को इसका लाभ मिलेगा क्योंकि उस स्थिति में ब्रिटेन यूरोपियन संघ से इतर आयात निर्यात, कच्चे माल, निर्माण सेक्टर में भारत और अमेरिका जैसे देशों से भी व्यापार कर सकेगा। वह यूरोपियन संघ के देशों से भी व्यापार कर सकेगा लेकिन अपनी खुद की शर्तों पर। भारत भी यूरोपियन संघ की शर्तों से इतर ब्रिटेन से सायबर सिक्युरिटी और सैन्य क्षेत्र में अपनी क्षमताओं को ब्रिटेन के साथ द्विपक्षीय वार्ता से ही निपटा लगा जो अभी यूरोपियन संघ के नियम के अनुसार कठिन है। ब्रिटेन के लिए यूरोपियन संघ से हुआ नुकसान मेक-इन-इण्डिया से सुधर सकता है। 

इन्वेस्टमेंट बैंकिंग सेक्टर सबसे बड़े खतरे में आएगा, ब्रिटेन के निकलने की स्थिति में एचएसबीसी पहले ही अपने ऑफिस को फ़्रांस ले जाने की बात कह चुका है, और इसी प्रकार की बात आई अन्य देशों ने भी कही है। 

उन सभी कंपनियों के मालिक अपने मूल देश के व्यापारिक प्रतिष्ठानों को सुदृढ़ रखने का प्रयास करेंगे और वह एमर्जिंग मार्केट से पैसा निकालने का प्रयास करेंगे। यकीन मानिए चौबीस जून को विश्व के शेयर बाज़ार जबरदस्त उठापटक मचाएंगे। अगला हफ्ता बैंकिंग सेक्टर में काम करने वाले लोगों के लिए बहुत व्यस्त रहने वाला है। 

बहरहाल कई ऐसी यूरोपियन कम्पनियाँ हैं जिनका हेड-क्वार्टर ब्रिटेन में है और वह सभी अभी पशोपेश की स्थिति में हैं। ब्रिटेन के नागरिक 23 जून को निर्णय लेंगे और यह अभी तक के सबसे महत्तवपूर्ण जनमत संग्रहों में से एक होगा। और हाँ एक और बात, इस वोटिंग प्रक्रिया में भाग लेने वाले लगभग दस लाख वोटर भारतीय मूल के हैं सो देखते हैं यह एंग्लो-इन्डियन वर्ग क्या करता है और यूरोपियन संघ पर आये इस संकट का क्या होता है... 

शनिवार, 11 जून 2016

अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार, अमेरिका चीन और हम

आज कल देश विदेश में राजनैतिक उठापटक एक विचित्र मोड़ पर है, कल के दुश्मन आज के दोस्त हैं और कल के दोस्त आज तल्ख़ सम्बन्धों के दौर से गुज़र रहे हैं। दक्षिण एशिया किसी अखाड़े सरीखा या यूँ कहें की अमेरिका, यूरोप, रूस और चीन के लिए कूटनैतिक और वर्चस्व के लिए उपयुक्त मैदान बन रहा है। आइये आज इतिहास के कुछ पन्नों को टटोलते हुए उस बात को समझने का प्रयास करते हैं जिसने भारत को विश्व मंडल पर सबसे बड़े बाज़ार के रूप में खड़ा कर दिया है और भारत की इसी स्थिति ने उसे कई मित्र और शत्रु दिए हैं।

"आइये जानते हैं चीन और भारत एक ही समय तथाकथित स्वतन्त्र हुए लेकिन फिर भी चीन भारत से लगभग तीन गुनी बड़ी अर्थव्यवस्था कैसे बन गयी। शायद आर्थिक सुधार की प्रक्रिया एक वामपंथी देश ने एक लोकतान्त्रिक देश से पहले समझ ली और विश्व के मिजाज को भांपते हुए सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में ही आर्थिक सुधारों की नींव रख दी। चीन न सिर्फ विश्व के लिए पहली फैक्ट्री बन बैठा बल्कि उसने अपनी आर्थिक नीति को इस तरह से बदला कि अमेरिका जैसा देश भी अपने देश का कच्चा माल चीन भेज कर वहां से तैयार माल खरीदने के लिए मजबूर हो गया। एक ताला-चाभी से लेकर हैलीकॉप्टर के पुर्जे तक सब कुछ बनाने के लिए चीन ने अपना बाज़ार खोल दिया और स्थिति को इस कगार पर पहुंचा दिया कि अब चीन की सरकार जब अपने ब्याज दर को निर्धारित करती है तब अमेरिका का शेयर बाज़ार हिलने लगता है। एक समय के मित्र देश अब प्रतिद्वंदी बन रहे हैं और जो स्थिति एक समय पहले अमेरिका और सोवियत संघ की थी कुछ वैसी ही अब अमेरिका और चीन की हो रही है। मित्रों शीत युद्ध के दौरान विश्व में शक्ति के दो केंद्र थे, अमेरिका और सोवियत संघ। सभी छोटे देश इनमे से किसी एक के ही मित्र देश बने रह सकते थे। जब भारत और सोवियत संघ में बीच मित्रता जगजाहिर हुई तब पाकिस्तान ने अमेरिका से मित्रता के लिए पहल की। सोवियत संघ के खिलाफ मोर्चे की स्थिति में लिए अमेरिका को भी एक दोस्त की तलाश थी और इसी कारण से अमेरिका ने पाकिस्तान को अस्त्र दिए, शस्त्र दिए, आर्थिक सहायताएं दी। अमेरिका को साम्यवाद के विरुद्ध मोर्चा बनाने के लिए जिस प्रकार के सहभागी की ज़रूरत थी उसके लिए पाकिस्तान पूरी तरह से उपयुक्त था। उन्नीस सौ पैंसठ के युद्ध में पाकिस्तान को भारत के खिलाफ शुरूआती बढ़त मिली थी और अमेरिकी हथियारों से सुसज्जित पाकिस्तानी सेना ने ऑपरेशन द्वारिका में भयंकर तबाही मचाकर भारत को बैकफुट पर धकेल दिया था। वह तो शास्त्रीजी जैसा नेतृत्व और विश्व में सबसे साहसिक सैन्य बल होने के कारण भारत ने स्थिति को पलटकर पाकिस्तान और अमेरिका को धूल चटा दी थी। सन बहत्तर की लड़ाई में जब इंदिरा गांधी जैसी मजबूत इरादों वाली महिला ने पाकिस्तान को पूरी तरह कन्टेन करने का मन बना लिया था तब इंदिरा कैबिनेट के ही किसी विश्वासपात्र व्यक्ति की गद्दारी और सीआईए को सूचना लीक करने के कारण ही स्थिति बदल गयी थी। अमेरिका ने अपने मित्र पाकिस्तान को बचाने के लिए अपनी नौसेना का एक बेड़ा बंगाल की खाड़ी में रवाना किया था। सोवियत संघ ने सहायता का वायदा किया था लेकिन भारत अमेरिका से सीधी टक्कर लेने की स्थिति में नहीं था और इसी कारण लाख लोगों के आत्मसमर्पण करने के बाद भी उन्हें छोड़ा गया और भारत ने पश्चिमी पाकिस्तान से सेना वापस बुला ली।"

मित्रों कहने का सीधा अर्थ यह ही है कि अमेरिका भारत का कभी भी मित्र नहीं रहा है। यह सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए विश्व भर में समस्याएं खड़ी करता आया है। आज विश्व में विकाशशील देश बड़े बाज़ार बनकर उभरे हैं और इन देशों में बढ़ता हुआ समाज अपने आप में अमेरिका सरीखे देशों के लिए कमाई का एक बड़ा जरिया बनकर उभरे हैं। भारत को भी रोजगार चाहिए और यह निवेश के जरिये ही हो सकता है। नेहरू के औद्योगीकरण के मॉडल की दिशाहीन नीति को जब नरसिम्हाराव ने ठीक दिशा दी और फिर उसे ही अटल बिहारी और मनमोहन सरकार ने आगे बढ़ाया, जब भारत की विकास दर 11.4 प्रतिशत हुई तब भारत को विश्व ने गम्भीरता से लेना शुरू किया। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई कांग्रेस सरकार के समय में भारत और भारत के बारे में नजरिया बहुत ही नकारात्मक होता गया, जो क्षवि बन रही थी वह बिखरने लगी। सरकार में ही सत्ता के कई समानांतर केंद्र होते गए और लगभग हर रेटिंग एजेंसी ने भारत को नकारात्मक श्रेणी में डाल दिया। रोज नए भ्रष्टाचार के बाद 2014 लोकसभा चुनाव के बाद मोदी प्रधानमन्त्री बने तब उन्होंने सबसे पहले इसी परसेप्शन को ठीक करने की ज़िम्मेदारी उठाई। नकारात्मकता को दूर करते हुए उन्होंने भारत के सकारात्मक पहलु को उठाना शुरू किया, विश्व में दौरे किये और निवेश के लिए भारत को बाकायदा एक बाज़ार की तरह प्रस्तुत किया। इसका नतीजा महज़ दो वर्ष में भारत ने अमेरिका और चीन को पीछे छोड़कर निवेश के लिए सबसे आगे निकल गया। प्रगति के मार्ग पर विकासदर एक आंकड़ा भर नहीं है यह विश्व भर के लिए प्रगति का एक सन्देश होता है और यह बाहरी निवेश के लिए देश की क्षवि को बनाने के लिए निर्णायक हो सकता है।


बहरहाल अब भारत विश्व के बड़े देशों के लिए एक बाज़ार है, आज अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत के बढ़ते कदम से विश्व अचरज में है और अब शिक्षा क्षेत्र से लेकर विज्ञान, सूचना प्रौद्योगिकी तक पर जगह भारतीयों ने अपना डंका बजाया है। मोदी सरकार ने पिछले दो वर्षों में वैश्विक पटल पर कूटनीति का एक नया दौर शुरू किया और कांग्रेस के नकारात्मक विदेश नीति से इतर एक नए दौर का सूत्रपात किया। इस दौर में भारत ने हिन्द महासागर में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए सेशेल्स और मालदीव्स में केंद्र, ईरान में बंदरगाह की स्थापना ताकि पाकिस्तान को बिल्कुल अलग-थलग किया जा सके। अमेरिका भी भारत के सुर में सुर मिला रहा है और पहली बार पश्चिम पाकिस्तान के नहीं बल्कि भारत के पक्ष में खड़ा दिख रहा है।

मोदी के प्रयास भारत की कूटनीतिक सफलता के लिए बेहद जरूरी हैं और वह इसे बखूबी समझते भी हैं। देश का विपक्ष भले कुछ भी कहे लेकिन सत्य यही है कि आज अमेरिका ने भी भारत-अमेरिका नीति को मोदी-सिद्धांत कहकर सम्मान दिया है। भले बांग्लादेश से सीमा विवाद हो या पाकिस्तान को लेकर नीति हो हर मोर्चे पर मोदी पिछली सरकारों से कहीं बेहतर काम करते दिख रहे हैं। अमेरिका में रहकर भारत के बारे में पिछले दो सालों में बदले रवैये को मैंने स्वयं महसूस किया है सो इतना कह सकता हूँ कि विदेश नीति को लेकर मोदी से बेहतर फिलहाल भारत में तो कोई नहीं है

सच कहूं तो असली मायने में विश्व बदल रहा है और विश्व की सोच बदल रही है, इस बदलते हुए समय में भारत को रूढ़िवादी सोच से निकलकर आगे बढ़ना होगा, पूरे देश को सम्भालना है और एक नयी दिशा देनी है। सरकार कोई भी हो, यदि हर सामान्य से सामान्य भारतीय भी अपनी ज़िम्मेदारी समझे तो भी देश की तरक्की होती रहेगी। एक सामान्य नागरिक की तरह हमें अतिवाद से बचते हुए सकारात्मक रवैया बनाए रखना चाहिए।