गुरुवार, 24 मई 2012

तेल का खेल....

क्या आप जानते हैं आपके देश में पेट्रोल की असली कीमत क्या है? आईए थोडा जानें असलियत और सरकारी आंकडों के इस खेल को....

सूत्र: ब्लूमबर्ग

एक बैरल की अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमत है १०० डालर, ५६ रुपये प्रति डालर के हिसाब से हो गये ५६०० रुपये प्रति बैरल ।

एक बैरल में लगभग १५० लीटर तेल हुआ

रिफ़ाईनरी की कीमत १०-१२ डालर प्रति बैरल होगी... मतलब १२*५६ = ६७२ रुपये
कुल कीमत = ५६००+६७२ = ६२७२ रुपये
प्रति लीटर कीमत = ६२७२/१५०= ४२ रुपये...

मतलब एक लीटर पेट्रोल की असली कीमत हुई लगभग ४२ रुपये..... मुम्बई में पेट्रोल की आज की कीमत है लगभग अस्सी रुपये, मतलब एक लीटर पर ३८ रुपये का मुनाफ़ा.... 

अब ज़रा इस मुनाफ़े को थोडा और जानें.... इसमें कितना पैसा किस किस के पास गया.....

हर राज्य पेट्रोल की कीमत पर ३० फ़ीसदी वैट वसूलते हैं.... केन्द्र शासित राज्यों में यह थोडा कम है इसलिए दिल्ली और मुम्बई की कींमतों में कोई छ: सात रुपये का अन्तर है....

केन्द्र सरकार इसपर एक्साईज़ ड्यूटी (सोलह प्रतिशत), स्पेसल ड्यूटी, सेस वसूलती है....  तेल कम्पनियों का मुनाफ़ा, डीलर कमीशन सब जोड कर यह करीब पचास फ़ीसदी तक जाता है।
एक लीटर तेल पर होनें वाले ३८ रुपये के मुनाफ़े पर लगभग, १५ रुपये केन्द्र, और १६ रुपये राज्य और ७ रुपये तेल कम्पनी को मिलते हैं....   अब आप खुद ही अंदाज़ा लगाईए सरकार की मंशा तेल कम्पनियों को बचानें की है या अपनी ज़ेब भरनें की ?

दर-असल सरकार की नीयत का साफ़ न होना हमारे देश की सबसे बडी विडम्बना है,  तेल कम्पनियों का मुनाफ़ा या नुकसान एक नौटंकी है... रुपये की औकात गिरनें से बचानें के लिए भारत सरकार के पास न कोई तत्कालिक विचार है और न कोई दूरदर्शी एक्शन प्लान.... ऐसे में देशवासियों के पास इस बढी हुई कीमत को झेलनें के अलावा कोई और रास्ता नहीं है।

सोमवार, 14 मई 2012

नाला सफ़ाई चालू है....

मुम्बई में आज कल बरसात की तैयारी जोरो पर है.... नाले और गटर को साफ़ किया जा रहा है, उनका कचरा निकाल कर सडक पर छोड दिया जा रहा है.... इस बाबत जब बात की गई नवी मुम्बई के काऊंसिल में तो पता लगा की अभी नाले की सफ़ाई का काम चालू है..... पता नहीं सडक का कीचड और कचरा अगले साल साफ़ करेंगे शायद.... अगर ऐसे में बरसात चालू हो गई तो फ़िर भगवान ही मालिक है भाई.....

सच में राम भरोसे हिन्दुस्तान.........

मंगलवार, 8 मई 2012

क्या भारत वाकई में आर्थिक महाशक्ति है?

भाई हमको हमेशा यह बात कही जाती है की हम दुनिया की बडी अर्थव्यवस्था हैं, और हमारी गिनती दुनिया के सबसे ताकतवर देशों के बीच होती है... क्या यह सही है....  शायद जीडीपी का राग अलापती हुई हिन्दुस्तानी सरकार अपनें आंकडों के हिसाब से यह बतानें में सफ़ल हो जाये की भारत की स्थिति अन्य पश्चिमी देशों की तुलना में कहीं बेहतर है। लेकिन यथार्थ के धरातल पर देखा जाए तो भारत की स्थिति में बडी असमंजस की स्थिति है... मूडीज़ कहता है भारत की सरकार भारत के विकास की सबसे बडी बाधा है, एस एंड पी पहले ही भारत को आऊटलुक निगेटिव श्रेणी में डाल चुका है । विदेशी निवेश में थोडी मंदी आई है, लेकिन स्थिति उतनी खराब नहीं हुई है.... और सरकार के हिसाब से अभी कुछ गडबड नहीं हुई है और हम इस स्थिति से उबर जाएंगे.... शायद तब तक देर हो चुकी होगी और स्थिति भयावह हो चुकी होगी....  क्या कहेंगे....

प्रणव मुखर्जी बोलते हैं सब्सिडी हम दे नहीं सकते और डीज़ल और गैस के सिलिन्डर को बाज़ार के हवाले करना होगा... मतलब पहले से ही मंहगाई की मार से अधमरी जनता को पूरी तरह मारनें का पूरा इंतज़ाम है। सरकार वोडाफ़ोन डील से हुए नुकसान की भरपाई के लिए कानूनी फ़ेरबदल का पूरा मन बना चुकी है और आज सरकार नें "ईंडिया इज़ नाट ए टैक्स हैवेन" जैसे शब्दों का प्रयोग करके कार्पोरेट जगत को सीधी चेतावनी दे दी है। एक तरीके से सही भी है लेकिन कार्पोरेट डील और विदेशी कम्पनियों से होनें वाले सौदों पर आघात भी है।

भारत विकासशील देश है, और हर सेक्टर को पैसा चाहिए... यह पैसा आयेगा कैसे, इसकी जुगाड में सरकार रोती रहती है। टैक्स से होनें वाली कमाई बे-हिसाब है... और आंकडों पर नज़र डालिए तो जानियेगा की भारत की अर्थव्यवस्था लगभग ५६८ अरब डॉलर के सकल घरेलू उत्पाद के साथ विश्व अर्थव्यवस्था में १२ वां स्थान रखती है, लेकिन केवल १.२५ डालर की प्रति व्यक्ति रोजाना आय (भारत की ४२ फ़ीसदी आबादी) इन आंकडों पर पानी फ़ेरनें के लिए काफ़ी है। विश्व बैंक के आंकडों पर नज़र डाली जाए तो प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से भारत का १४३ वाँ स्थान है। फ़ारेक्स ट्रेडिंग में भारतीय रुपये का योगदान केवल ०.९१ प्रतिशत है तो फ़िर हम आर्थिक महाशक्ति कैसे ? क्या केवल सकल घरेलू उत्पाद और विदेशी मुद्रा भंडार किसी देश के विकास के पैमानें हो सकते हैं ? सकल घरेलू उत्पाद या सकल घरेलू आय, एक अर्थव्यवस्था के आर्थिक प्रदर्शन का एक बुनियादी माप है, यह एक वर्ष में एक राष्ट्र की सीमा के भीतर सभी अंतिम माल और सेवाओ का बाजार मूल्य है...  अब एक नज़र सरकारी पैंतरेबाज़ी पर.... हमारे देश का उत्पादन विदेशों में भेजा जाता है और हमें विदेशी उत्पाद खरीदनें पर मज़बूर कर दिया जाता है। किसी भी फ़ल की दुकान को देखिए, आपको अमेरीकी और फ़िज़ी के सेब मिलेंगे...  और हमारे देश के फ़ल विदेश भेज दिए जाते हैं। अभी सुननें में आया है की चीनी का निर्यात नियंत्रण मुक्त होगा और शरद पवार नें चीनी को बाहर भेजनें का फ़ैसला लिया है, नतीज़ा क्या होगा? हमारी चीनी अमेरिकी खाएंगे और हम विदेशों से मंगाई हुई चीनी कई गुना दाम में... मतलब सरकार को इस आयात और निर्यात के बीच अपनें बैलेन्स शीट को साफ़ सुथरा करके दिखानें का और सकल घरेलू उत्पाद को बढा चढा कर दिखानें का मौका मिलेगा।

हमारा फ़ूड प्रिज़र्वेशन और खाद्य पदार्थों की सुरक्षा के लिए बनाए हुए कोल्ड स्टोरेज़ेस की स्थिति तो और भयावह है, सरकार हर बार न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करनें में नौटंकी करती है और सरकारी फ़ैसले का इंतज़ार करते करते सब अनाज़ सड जाता है। यकीन मानिए भारत को बाहर से कुछ भी मंगाने की ज़रूरत नहीं है और हम इस मामलें में आत्म निर्भर हैं.... केवल सरकार के गलत फ़ैसले के कारण बाज़ार बेकाबू होता जा रहा है। आर्थिक महाशक्ति बननें का सपना और सरकारी नीयत की साफ़गोई पर बडा प्रश्नवाचक चिन्ह है। एक तरफ़ हम अग्नि का परीक्षण करते हैं और एक तरफ़ बस्तर के नक्सली, कलेक्टर को दस दिनों तक बंधक बना के रख लेते हैं... किस स्तर का विरोधाभास है यह... ज़रा सोचिए....  जब तक सरकार की नीयत और उसके आंकडों का फ़ायदा आम जनता तक नहीं पहुंचता इस आर्थिक तरक्की के कोई मायनें नहीं है..... 

:-देव

सोमवार, 7 मई 2012

जंगल से निकलकर संसद में पहुंच गए हैं डाकू....

बाबा रामदेव कहते हैं, जंगल से निकलकर संसद में आ गये हैं डाकू.... गलत है ? या कहें की बात तो सही है लेकिन शब्द चयन में थोडी गडबड है... दर-असल आज कल एक अजीब सा माहौल हो गया है, हर कोई तुरत फ़ुरत में फ़ैसला लेने और अपनी चमकानें में लगा हुआ है... बाबा रामदेव को भी लग रहा है की आज कल सरकार के खिलाफ़ बोलनें में ही भलाई है और इसी में उनका भविष्य सुरक्षित है... वैसे सरकार के खिलाफ़ बाबा रामदेव का यह कहना कोई गलत भी नहीं है, लेकिन इसका कोई परिणाम निकलेगा इसमें एक बडा प्रश्नवाचक चिन्ह है....

आज कल मंहगाई अपनें चरम पर है, सरकारी रास्ते से कोई समाधान निकलता दीख नहीं रहा है, जनता त्रस्त है लेकिन फ़िर भी सरकार पर कोई असर नहीं क्योंकि इस समय कोई व्यव्धान उत्पन्न हो नहीं सकता। जनता को आदत है, वह इसी मंहगाई और भ्रष्टाचार के रास्ते पर जीनें का तरीका निकाल ही लेगी। आखिर पक्ष और विपक्ष दोनों ही इस निर्णय पर अडे हों की "कोई निर्णय लेना ही नहीं है" तो फ़िर जनता आखिर जाये तो जाये कहां । लेकिन फ़िर भी होना क्या है ? सरकार कहती है, लोकतांत्रिक तरीका अपनाईए और अपनी बात संसद के माध्यम से कहिए.... विपक्ष कहता है संसदीय रास्ते से लोकपाल और भ्रष्टाचार से जुडे हुए मामले का हल निकाला जाए... मुझे इस समय भाजपा की सोच और उसकी दशा-दिशा पर एक बडा प्रश्नवाचक चिन्ह नज़र आता है।  याद कीजिए जेपी का आन्दोलन, कैसे बच्चा बच्चा सडक पर था... सरकारें हिल गईं थी और कांग्रेसी सरकार की चूलें हिल गईं थी... यदि उस समय भी संसद के रास्ते से हल निकाला जाता तो क्या निकलता ? दर-असल आज़ाद हिन्दुस्तान में देशव्यापी आन्दोलन से ही कांग्रेसी सत्ता हिली है... याद कीजिए १९७७, १९८९ और १९९८...आपातकाल नें संघ और जनता पार्टी को सत्ता का बीज़ दिया..... कोई भी जन-आन्दोलन किसी भी राजनैतिक दल और विचारधारा के लिए सत्ता का बीज हो सकता है लेकिन वह स्वयं में सत्ता चलानें का दम खम रखती है इसकी कम से कम आज़ाद भारत के लोकतंत्र में कोई मिसाल देखनें को नहीं मिलती।


आज जनता त्रस्त है और सरकार एकदम मद-मस्त चल रही है, यकीन मानिए चलती रहेगी...और अगले चुनावों में भी कांग्रेस ही आयेगी क्योंकी इस देश की जनता को आदत है इसी माहौल में रहनें की और बेकार की बक बक करनें की... नेताजी सुभाष चंद्र बोस और शहीदे-ए-आज़म भगत सिंह के तरीके से आज़ादी पाई होती तो कहते, हमनें तो सत्ता हस्तांतरण कराया और अंग्रेजों के जानें के बाद काले अंग्रेजों की गुलामी पाई। क्या कहेंगे....  नेताजी नें कहा था "भारत को स्वतंत्रता के बाद कुछ वर्षों तक एक तानाशाह की ज़रूरत होगी" यह यकीनी तौर पर सही होता... यदि देश की बागडोर नेताजी के हाथ होती तो हमारी क्या हैसियत होती यह किसी को बतानें की ज़रूरत नहीं है....  ज़रा सोचिए.....