शनिवार, 25 अगस्त 2012

फ़ेसबुक... ट्विटर.... प्रतिबंध ?


फ़ेसबुक... ट्विटर.... आखिर प्रतिबंध लगाना ज़रूरी है ? आखिर सोशल मीडिया को प्रतिबंधित कर देना सही होगा... या उसके ज़वाब में कोई और पहल अधिक कारगर हो सकती है? सोचनें का विषय है क्योंकी मीडिया के मायनें आखिर क्या हैं यह भी सोचना और समझना होगा। याद कीजिए आपातकाल का वह दौर जब विरोध में उठे हर स्वर को सरकार कुचल देना चाहती थी, या यूं कहिए तो विरोध की किसी आवाज़ को सुनना ही नहीं चाहती थी.. उस दौर के जानकार बताते हैं की उस समय के अखबारों के संपादकीय पन्ने से सरकार थोडा घबराती थी और हर अखबार का संपादकीय पन्ना ही उस अखबार की विचारधारा को दर्शाती थी। लेकिन अगर सरकार प्रेस सेंसरशिप पर उतर आए तो फ़िर ? उस दौर का यह खाली संपादकीय पन्ना.. इस खाली पन्ने नें अधिक प्रभाव डाला... क्या कहेंगे.. उस दौर की पत्रकारिता और आज की पत्रकारिता में अन्तर है ?

(१९७५ का इंडियन एक्सप्रेस)



चलिए आज के दौर की बात करते हैं, मीडिया के कुछ लोग मुखर भाव से सरकारी कदम का समर्थन करते हैं या कहें तो विरोध नहीं करते और तटस्थ रह कर सरकार का ही समर्थन करते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर आज तक राजनीति ही तो होती आई है... याद कीजिए देश की जनता को असल समाचार पानें का अधिकार है? या उसे सरकारी भोंपू दूरदर्शन के दर्शन करने हैं? पहले तटस्थ मीडिया के नाम पर बीबीसी लन्दन सुनते थे क्योंकी सरकारी समाचार केवल सरकार के प्रचार के लिए ही थे और वह कभी सरकारी विरोधी खबर नहीं दिखाते थे। ज़माना बदला और फ़िर समाचार चैनलों की जैसे बाढ आ गई, अब डील होती है खबरों को लेकर... बडे बडे इश्श्यूस पकडे जाते हैं और फ़िर दलाली होती है.. सेटिंग होती है और सब मिल बांट कर खाते हैं। क्या पक्ष और क्या विपक्ष दोनों मिल बांट कर खाते हैं। मौज होती है... ना लेफ़्ट और ना राईट... जी न समाजवाद और न वामपंथ.. सबसे बडा दाम पंथ... 

वैसे इस दौर में सोशल मीडिया से सरकार के घबरानें की असल वजह क्या है? क्या असम मुद्दे पर उसकी नाकाबिलियत दुनियां को दिख रही है वह ? या फ़िर सोशल मीडिया पर वह चाहकर भी सेंसर शिप नहीं रख पा रही... आखिर असली कुढन है क्या... मैं नहीं मानता की सरकार को जनता की कोई परवाह है और वह वाकई में देश के हित में यह फ़ैसला ले रही है। वह अपनी कुढन छुपानें के बहाने ज़रूर तलाश रही है... 

अब आप ही कहिए अगर सोशल मीडिया न होता तो फ़िर क्या कभी यह तस्वीरें सामनें आती?  यकीनन यह सरकार की एक बहुत बडी नाकामयाबी थी या यूं कहें की उसका ही समर्थन था जिसके कारण इतनी बडी वारदात होनें के बाद भी कोई गिरफ़्तारी नहीं है और कोई कुछ बोल भी नहीं रहा है.. 




क्या कहिएगा... जी बिल्कुल उस दिन मैनें आकाशवाणी और दूरदर्शन का न्यूज़ देखा और सुना... यकीन मानिए उसमें इस घटना को इतना छोटा करके दिखाया गया की जैसे कुछ हुआ ही न हो... एक बडा वर्ग यह कहेगा की दूरदर्शन का यह रवैया ठीक ही है और इस खबर को फ़ैलनें देनें से अराजकता फ़ैल सकती थी... जी बिल्कुल... इस प्रकार की सोच को मैं वैचारिक दीवालियापन का ही नाम दूंगा...

यकीनी तौर पर सरकार की यह खीज केवल और केवल अपनी नाकाबिलियत छुपानें के लिए है और उसे लगता है की सरकार विरोधी स्वर किधर से भी उठे उसे बन्द कर देना चाहिए। और जब इलेक्ट्रानिक मीडिया से सेटिंग हो ही चुकी हो और पत्रकारिता भी व्यापारिक सोच के साथ आगे बढकर सरकार को मौन समर्थन दे ही चुकी हो तो फ़िर ऐसे में देश की जनता के पास बगावत के अलावा और रास्ता भी क्या बचता है...