आज एक प्रमुख अखबार ने बुद्धिजीवी शब्द को लेकर काफी तल्ख़ टिप्पणी की है। कह रहा है मानो यह गाली हो चला है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं उनकी इस खीझ पर हंसु या रोऊँ। भाई सेकुलर और बुद्धिजीवी शब्द की व्याख्याएं खराब करने में लश्करे-मीडिया ही तो ज़िम्मेदार है। यह लोग खबर को तोड़ मरोड़ कर, खरीद फरोख्त कर बिके हुए लोग हैं और इनके जवाब में अगर शोशल मीडिया है तो इन प्रेश्याओ का अनर्गल प्रलाप कौन झेले। राष्ट्र की सुरक्षा सर्वोप्परि है सो ऐसे में आप मेमन को हीरो क्यों बना रहे हैं? उसको कवरेज आप ही दे रहे हैं न? कितनी बार और दुनिया के किसी और देश में क्या आतंकवादी की सजा माफ़ी के लिए रात में दो बजे सर्वोच्च न्यायालय कभी भी बैठा है? आपका सौभाग्य यह है कि आप भारत जैसे देश में हैं जहाँ आपको आतंकवादी के भी मानवाधिकार की बात कहने की आज़ादी है। आप आसानी से पुलिस, सरकार, सोशल मीडिया, हिन्दू संगठनों को गाली दे सकते हैं क्योंकि यह तो सुनने के आदी हो चुके हैं। वैसे भी मुसलमान वोट बैंक है न और इन भटके हुए नौजवानों के लिए देश हित जैसी कोई बात नहीं है।
प्रेस भारत की बिकी हुई है। यह एक बार भी राष्ट्रवाद की बात नहीं करते, देशहित सबसे ऊपर है, धर्म उसके बाद तो आतंकवादी को सजा देने में उसका मजहब कहाँ से आ गया? यह ओवैसी जैसा आदमी और ऐसी कमीनी प्रेश्याऐं आखिर कौन से देश का हित साध रही हैं? कौन है इनके पीछे? आखिर इन वकीलों को पैसे कौन दे रहा है? इन प्रेश्याओँ को कौन पाल रहा है?
सुरेश जी की ब्लॉग पोस्ट से सहमत हूँ की चार लिस्ट निकाली जाए
- मोदी को वीज़ा न देने की चिठ्ठी लिखने वाले
- अफज़ल गुरु की फांसी का विरोध करने वाले
- कसाब की फांसी का विरोध करने वाले
- मेमन की फांसी का विरोध करने वाले
और इस लिस्ट में जो भी नाम कॉमन हो, पता लगाया जाए उसकी संदिग्ध गतिविधियों का। यह निःसंदेह बड़े देशद्रोह की साज़िश का खुलासा करेगा।
और हाँ प्रेश्याओँ अगर शर्म है तो डूब मरो चुल्लू भर पानी में.... जो पुलिस वाला उस आतंकवादी से लड़ते हुए मर गया उसके घर वालों की आँख में आँख डाल कर बोलो.... मुम्बई हादसे में मरे लोगों के परिवार से मिले हो कभी? जानते हो हवलदार तुकाराम काम्बले कौन था?
।।धिक्कार।। धिक्कार।।