राजनीति में कई बार ऐसी स्थिति आ जाती है जब निर्णय लेने में दिक्कत होती है। यह एक दुर्गम स्थिति होती है और जो कोई शासक सही समय पर सही निर्णय ले पाता है उसकी वैसी ही ऐतेहासिक विवेचना होती है। उदाहरण के लिए उन्नीस सौ इकहत्तर की लड़ाई में इंदिरा गाँधी के फैसलों का हम सब गर्व करते हैं, शास्त्रीजी का "जय जवान और जय किसान" हमारे लिए मन्त्र बने और देश इनके पीछे खड़ा हुआ। जब खाने को अन्न नहीं है तब भूखे रहकर स्वाबलंबन का पाठ पढ़ाने वाले शास्त्रीजी देश के महानतम प्रधानमन्त्री हैं।
हमने ठीक इसके इतर वोट बैंक की राजनीति को चमकाने वाले नेहरू और राजीव गांधी को भी देखा है और मनमोहन सरीखे पढ़े लिखे बुद्धिजीवी प्रधानमन्त्री को भी देखा है। इन तीनों में समानता यह थी कि यह भारत की जमीनी हकीकत से अनजान थे और यह तीनों ही कमज़ोर और नाजुक मौकों पर सोच विचारकर सर्वसम्मति से "कोई निर्णय न लेने" के निर्णय लेते थे। आज माओवाद चरम पर है, वामपंथी आतंकवाद किसी घुन की तरह फैला हुआ है, इसे पालने वाली कांग्रेस फिर से इसको मोदी सरकार को अस्थिर करने में करना चाहती है और यह इनकी हरकतों से दिख रहा है। किसी को अगर समझना हो तो आप सिर्फ इन तीन चार मुद्दों पर ध्यान दीजिये:
नेपाल जैसे देश के साथ भी भारत की किसी जल संधि का न होना
बांग्लादेश के साथ सीमा विवाद
पाकिस्तान और चीन के साथ विवाद
कश्मीर की समस्या
लगभग इन सभी समस्याओं की जड़ नेहरू ही हैं। कश्मीर की धारा 370 नेहरू की नाकामी का सबसे बड़ा प्रमाण पत्र है। देश की जमीनी हकीकत से अनजान, राष्ट्रवाद के सिद्धांत और विचार से कोसों दूर कोई व्यभिचारी, सत्तालोलुप व्यक्ति जब सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर जा बैठे तब स्थिति ऐसी ही होती है। इतिहास को चाहे जितना भी बदलने का प्रयास हो लेकिन नेहरू देश के सबसे बड़े अपराधी हैं और रहेंगे। चोर लुटेरे का खानदान आज भी लूट खसोट के तरीके आजमा रहा है और इसमें उसकी मदद मीडियाई दलाल बखूबी कर रहे हैं। वोट बैंक के लिए सिर्फ एक जाति के पीछे भागना, फतवे निकलवाना और सत्ता की मलाई खाना। एक बार राजीव गांधी बोले थे न कि एक रुपये में से सिर्फ पांच पैसा नीचे जमीन तक आता है और बाकी सब नेतागिरी खा जाता है लेकिन उन्होंने इस पंचानवे पैसे की लूट को रोकने के लिये कुछ लिया? उलटे आदिल शहरयार के बदले एंडरसन को भगा दिया? बोफोर्स की दलाली खा गए? इमाम का फतवा आता रहा, सत्ता चलती रही मलाई खाई जाती रही। मीडियाई दलाल सत्ता के गलियारे में सत्ता के चारण भाट बनकर बीन बजाते रहे। धीरे धीरे यह मीडिया सत्ताधारी दल के किसी माउथपीस सरीखी बन गयी। इनाम बेचे जाने लगे, सत्ता के गुण गाने वाले और चाटुकारों को साहित्य अकादमी मिलने लगी और वोट बैंक की राजनीति को चमकाने की आदत किसी व्यसन की तरह इन बुद्धिजीवियों के दिमाग में भर गयी। आज का मीडिया इसी रोग से पीड़ित है और इसी रोग के कारण आप कभी इस दलाल मीडिया को गोधरा पर रोते नहीं देखेंगे लेकिन उन्हें गुजरात पर चीख चीख कर चिल्लाते देखेंगे। यह रोग किसी महामारी की तरह अब कई जगह फ़ैल गया है और कई पढ़े लिखे मास्टर, लेखक, कार्टूनिस्ट और व्यंग्यकार भी इसके शिकार हैं। आज की मीडिया के प्राइम टाइम में बैठे बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई, रबिश कुमार और सागरिका घोष जैसे न्यूज़ रीडर इसी रोग का शिकार हैं। आज बुद्धिजीवी शब्द किसी उपहास सरीखा बन गया है और इसी प्रकार के लोग इसके ज़िम्मेदार हैं जो कन्हैया जैसों को हीरो बनाते हैं? बहरहाल सत्ता की चकाचौंध में जनता के हित की अनदेखी पहले भी होती रही है और अब भी हो रही है, केजरीवाल जैसे नेता सत्ता के मोह में इतने अंधे हैं कि क्या कहा जाए। यह बेहद बचकाना बात है कि एक छोटे से अपूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री अपने पास कोई विभाग नहीं रखता लेकिन प्रचार के लिए करोड़ों उड़ा देता है। कोई दिमाग वाला व्यक्ति इस बात को जस्टिफाई नहीं कर सकता है कि आखिर दिल्ली के प्रायवेट स्कूलों का नोटिस मुंगेर, मुजफ्फरपुर, पूर्णिया और बेल्लारी में क्यों छप रहा है। वैसे वैचारिक उहापोह की स्थिति में भाजपा भी है, सत्ता पाकर आज भाजपा भी कई बातें समझना नहीं चाह रही है और कांग्रेसी तरीकों पर उतर आई है। यह कांग्रेसी तरीके उसे वोट बैंक की राजनीति में मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए मजबूर कर रहे हैं। कश्मीर के एनआईटी पर भाजपा का रवैया बेहद निराशाजनक है, चीन का भारत के आतंकवाद के विरोध में आये प्रस्ताव को वीटो कर देना और इसके बाद भी मोदी का मेक इन इण्डिया में चीनी कम्पनियो को रियायत देना। कोई बयान न देकर चीन पर चुप्पी साध लेना बहुत गंभीर मसला है।
भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि यहाँ अस्सी प्रतिशत हिन्दू वोट बैंक नहीं है लेकिन चौदह प्रतिशत मुस्लिम वोट संगठित बैंक हैं। यह इमाम के फतवे पर वोट डालने वाली कौम का तब तक भला नहीं होगा जब तक वह इससे ऊपर नहीं आएगी। इस समाज के ठेकेदार भारतीय संस्कृति और इतिहास से पूरी तरह अनजान हैं इनका यह राष्ट्रविरोधी रवैया इसलिए आता है क्योंकि यह भारतीयों के पैसे या चंदे से नहीं चलते बल्कि यह अरब से आये पैसे से अपनी दुकान चलाते हैं। सन सैतालीस के बाद एकदम यह स्थिति नहीं आई और शुरूआती दिनों में यह भारतीयों के ही चंदे से चलती थी, इसी कारण शुरूआती दिनों में हिन्दू मुस्लिम एकता की कई मिसालें देखने को मिली। बरेली शहर में चुन्नामियां का बनाया लक्ष्मी नारायण मंदिर या फिर बनारस में उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का काशी विश्वनाथ की सेवा में शहनाई वादन कुछ इसी प्रकार की मिसालें हैं। अब स्थिति बिगड़ चुकी है क्योंकि मुस्लिम मस्ज़िदों की फंडिंग वह कर रहे हैं जो भारत विरोधी हैं। मैं इन मौलवियों, फतवे शिरोमणियों का विरोध इसलिये भी करता हूँ क्योंकि यह कभी भी खुले तौर पर आईएसआईएस जैसे संगठनों के खिलाफ फ़तवा नहीं देते लेकिन भाजपा को वोट देने के खिलाफ फ़तवा जरूर दे देते हैं। अब भारत के मुसलमानो का रिमोट अरबी और पाकिस्तानी हाथ में होना और इसीलिए जब भारत का कोई भी राजनैतिक दल कश्मीर पर भारत के रुख का विरोध करेगा, वह इन ठेकेदारों की आँख का तारा बन जाएगा। जो कोई भारतीय संस्कृति की बात कहेगा वह इनके लिए रास्ते का रोड़ा और काँटा बन जाएगा। अजीब सी वैचारिक लड़ाई है, जिसमे व्यक्तिगत स्वार्थ हैं, वोट बैंक है, लूट है, आतंकवाद का समर्थन है लेकिन देश का राष्ट्रवाद कहीं नहीं है। जब तक देश के सभी नागरिकों का भारतीयकरण नहीं होगा कोई ख़ास फायदा नहीं होगा। राजनीति से धर्म को दूर करना जरूरी है। मुस्लिम धर्म गुरुओं और मौलवी का चुनाव को लेकर दिया जाने वाला फ़तवा बंद होना चाहिए क्योंकि यह असंवैधानिक है। वैसे इसकी उम्मीद काफी कम है और मुझे नहीं लगता है कि ऐसा कभी होगा क्योंकि यही इन मौलवियों की कमाई का मुख्य साधन है। आप यदि इनकी दुकान बंद कराने का प्रयास करेंगे तो फिर एक नया मालदा एक नया पूर्णिया हो जायेगा और फिर इनके समर्थन में राष्ट्रविरोधी और इसी विदेशी फंड से चलने वाला मीडिया तो है ही।
गजब देश है अपना!!