सभी ब्लॉगर मित्रों को न्यूयॉर्क से देव बाबा की राम राम........ लोकतंत्र में असंभव कुछ नहीं है और भारत हो या अमेरिका मामला एक सा ही है। एक जमाने के डेमोक्रैट आज रिपब्लिकन के राष्ट्रपति उम्मीदवार हैं और एक जमाने की रिपब्लिकन आज की डेमोक्रैट उम्मीदवार है, जी यह 2016 का अमेरिका है।
"अबकी बार ट्रम्प सरकार" का गान करने वाले मोदी के समर्थक ट्रम्प का राजनैतिक करियर कुछ ऐसा रहा है: रिपब्लिकन: (1987–1999, 2009–2011, 2012–present) और डेमोक्रैट: (before 1987, 2001–2009) और वहीं हिलेरी क्लिंटन 1968 के पहले एक रिपब्लिकन थी और आज डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति की उम्मीदवार हैं।
बहरहाल अब कल चुनाव हैं और अमेरिका अपने नये राष्ट्रपति का चुनाव करेगा। इस बार डोनाल्ड ट्रम्प और हिलेरी के बीच का यह चुनाव कई उठापटक के लिए जाना जायेगा और आज तक कभी किसी भी चुनाव के लिए इतने उतार चढ़ाव नहीं हुए। स्कैंडल, घोटाले और नौटंकियों से भरा हुआ यह चुनावी समय अजीब सा ही रहा। कुछ बुजुर्ग अमेरिकी नागरिकों की नज़र में यह दोनों ही अमेरिका के राष्ट्रपति बनने योग्य नहीं हैं और युवा वर्ग भी बंटा हुआ है। मेरे विचार से यहाँ इस बार का मामला 49/51 वाला ही होगा। भारतीय समुदाय तो कभी भारत में संगठित नहीं हुआ तो यहाँ तो क्या ही होगा इसलिए वह भी पूरी तरह से बंटा हुआ है।
बाजार विशेषज्ञों की नज़र में बुधवार को ट्रम्प के जीतने की स्थिति में पूरी दुनिया के शेयर बाजार गिर जाएंगे... हिलेरी के जीतने पर बाजार गिरेगा लेकिन उतना नहीं... ट्रम्प के जीतने पर मेक्सिको का बाजार सबसे ज्यादा प्रभावित होगा, बीस से तीस प्रतिशत तक धराशाई होना संभव है। ट्रम्प के जीतने की खबर यदि बुधवार सुबह के पहले ही आ गई तो जापान और चीन के सूचकांक सबसे पहले गिरेंगे और फिर भारत, यूरोप, ब्रिटेन सब कुछ लाल होगा और हाँ अमेरिका, लैटिन अमेरिका के सब बाजार धराशाई होंगे। वहीं हिलेरी के जीतने पर एशियाई बाजारों में तेजी होगी और यूरोप के बाजार सामान्य रहेंगे। मित्रों शेयर बाजार का किसी भी सरकार के चुने जाने पर चढ़ जाना या गिर जाना उस सरकार का बैरोमीटर नहीं है और बाजार की यह एक अस्थाई प्रतिक्रिया होती है। 2009 में मनमोहन के दुबारा चुने जाने के बाद मार्केट में दो बार अपर सर्किट (10% और 15%) लगा था लेकिन हम सब जानते हैं कि 2009-2014 के बीच रही भारत सरकार अब तक की सबसे खराब सरकार रही है सो आप स्वयं ही अंदाजा लगा सकते हैं।
वैसे यहाँ भी कई समस्याएं हैं - मुफ्त बीमा, इलाज और जरूरत मंद को नौकरी जैसे मुद्दे, बजट पर बढ़ता हुआ घाटा, आतंकवाद को लेकर ढुलमुल रवैया, रूस के साथ तनातनी, राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर विश्व का सबसे कर्जदार देश अमेरिका वाकई में बदलाव को कितना समर्थन देगा यह तो चौबीस घंटे में पता चल जायेगा। यहाँ भारत जैसे जातिवादी नेता और जनता नहीं लेकिन फिर भी अश्वेतों की हत्या और फिर उनकी सुरक्षा भी एक मुद्दा तो है ही।
देखते हैं, मामला चौबीस घंटे में साफ़ हो जायेगा। जो भी हो, मेरे लिए आने वाले दो दिन काफी व्यस्त होंगे और बाजार का परिवर्तनशील होना अपने आप में मुझे बहुत व्यस्त कर देगा।
बीच बीच में रिपोर्टिंग चालू रहेगी, देखते हैं क्या होता है।