बुधवार, 7 मार्च 2018

सो भगत सिंह कम्युनिस्ट थे?

एक हत्यारे अत्याचारी लेनिन का पुतला गिरा दिया गया... क्यों? वह भी ऐसे हुड़दंग से? मतलब एक तरफ तो वह एक ऐसा हत्यारा जो लाखों की हत्या करके भी विश्व में कई वर्षों तक आदर्श बना रहा लेकिन दूसरी तरफ भी तो हुड़दंगी ही थे? फिर... बहरहाल ऐसा भी क्यों हुआ? इस लेनिन के मामले पर कुछ लोगों की प्रतिक्रिया बेचैन करने वाली थी... मतलब लेनिन जैसे हत्यारे का पुतला गिराने वालों की तुलना बामियान वाले तालिबानियों तक से कर देना अजीब नहीं तो क्या है? 

एक झूठ बार बार प्रचारित किया जाता है कि सरदार भगत सिंह एक कम्युनिस्ट थे। दरअसल यह भी कलम के जेहादियों द्वारा किया गया एक सफल दुष्प्रचार है। किसी सच से मिलते जुलते झूठ को बार बार कह कर उसे सच बनाने का प्रयास है। 

एक तर्क यह दिया जाता है कि उनके पास लाहौर जेल में लेनिन पर पुस्तक थी... तो? मेरे पास बाइबिल, कुरान और गीता भी है और मेरे पास गांधी, सावरकर, लेनिन और मार्क्स के साहित्य भी हैं सो? यह तर्क कोई मायने नहीं रखता... फांसी के समय उनके पास लेनिन की आत्मकथा ज़रुर थी लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि "एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है" यह एक ऐसा झूठ था जिसे बड़ी खूबसूरती से बार बार लिखा और फैलाया गया। यदि यहाँ मैं गलत हूँ और आपके पास कोई एक भी पुख्ता स्रोत की जानकारी हो तो बताएं... 

दूसरा यदि सरदार भगत सिंह कम्युनिस्ट थे तो उन्होंने हिंदुस्तान "सोशलिस्ट" रिपब्लिकन आर्मी क्यों बनाई? वह यदि कम्युनिस्ट आंदोलन से प्रभावित थे तो आसानी से उस समय के कम्युनिस्ट दलों से जुड़ सकते थे.... लेकिन उन्होंने एक जनेऊ धारी पंडित चंद्रशेखर आज़ाद और सूफी सोच से प्रभावित बिस्मिल के साथ जाना पसंद किया। क्यों? 

दरअसल बात यह है कि उस समय के विश्व में कम्युनिस्ट का लेबल हर उस व्यक्ति पर यूँ ही लगा दिया जाता जो साम्राज्य पर उंगली उठाता.... उस समय के विश्व में ब्रिटिश राज का स्वाभाविक शत्रु यह कम्युनिस्ट ही था... सरदार भगत सिंह का आंदोलन एवं प्रयास ब्रिटिश सरकार का विरोध अवश्य था लेकिन वह एक राष्ट्रप्रेम की भावना से ओतप्रोत प्रयास था जिसमें उन्होने देश में शक्ति के संचय और जनजागरण के लिए सावरकर के उल्लेखों को भी पैम्पलेट बना वितरित किया था। उस समय हर वाद और प्रथा से इतर इन क्रांतिकारियों ने जन आंदोलन में हर उस चीज का प्रयास किया जिससे ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंका जा सके। 

तकलीफ यह है कि इन प्रयासों का डॉक्यूमेंटेशन उन लोगों ने किया जो स्वयं भी सॉफ्ट-कम्युनिज़्म से प्रेरित थे सो उन्होंने सच से मिलता जुलता झूठ इतनी बार लिखा कि वह सच लगने लगा... अब लेखन की कला में इन कम्युनिस्ट सोच वाले कलम के जेहादियों का कोई सानी न था और राष्ट्रवादी लेखक तो लिखने में बौड़म थे ही सो हमने एक अलग ही इतिहास पढा। यदि राष्ट्रवादी लेखकों की कलम ठीक से चली होती तो हमने पहले ही जान लिया होता कि सरदार भगत सिंह की फांसी के लिए असली ज़िम्मेवार जवाहरलाल और मोहनदास ही थे। यदि हमने ठीक इतिहास लिखा या पढ़ा होता तो हमें पता होता कि नेताजी के परिवार पर बीस साल जासूसी कराने वाला जवाहरलाल आखिर भारत रत्न कैसे हो गया? 

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