बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

1971 भारत की हार या जीत?

1971 की लड़ाई वास्तव में भारत के लिए एक बहुत बड़ी जीत थी, पूरा पश्चिम (अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस) सभी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र पर चढ़ाई करने को आतुर थे, बंगाल की खाड़ी में अमेरिकी युध्दपोत आक्रमण को तैयार थे, ब्रिटेन की पनडुब्बियां भारतीय समुद्र के इर्द गिर्द चक्कर लगाने और पाकिस्तान की मदद को तैयार थे, चीन उत्तरी रास्ते से भारत को घेरने की तैयारी में था। फ़्रांस पाकियों को सस्ते हथियार देने को तैयार था। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि अमेरिका और उसके मित्र देश नाज़ी जर्मनी के बाद विश्व के सबसे बड़े नरसंहार के ज़िम्मेदार देश को बचाने के लिए इतने पगलाये क्यों थे? यह हमारी विदेश नीति की असफलता थी या शीत युद्ध के दौरान रूस के साथ हमारी करीबी इन देशों की कुढ़न का कारण थी?  आखिर इंदिरा गांधी जैसी महिला को युद्ध वापस क्यों लेना पड़ा, करांची और लाहौर तक कब्जाने के बाद आखिर हम वापस क्यों आये, आखिर इतने सपोर्ट के बाद भी पाकिस्तान पिट कैसे गया....
क्या हुआ था उन दिनो... वर्ष २०१३ में अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने कुछ पत्रों को और चिट्ठियों को डिक्लसिफाई किया और इस समय के ओबामा प्रशासन ने उस समय की अमेरिकी नीति की आलोचना भी की। यह अमेरिका के लिए एक अजीब सी बात थी कि उन्होंने राजनीतिक समझदारी का परिचय देने की जगह शीत युद्ध में सोवियस संघ के किसी भी मित्र देश को बरबाद करने की ही राह चुनी थी। 

१९७१ के पहले हुआ क्या था?
23 मार्च 1956 में पाकिस्तान ने अपना संविधान बनाया और इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान बना। इस संविधान के तहत पहले चुनाव 1958 में हुए जरूर लेकिन मार्शल लॉ लगाकर पाकिस्तानी सेना ने ही कब्ज़ा बनाये रखा। जनरल अयूब खां पाकिस्तान के कमांडर-इन-चीफ बने रहे। जनरल अयूब खां ने नए संविधान सभा का गठन किया और 29 अप्रैल 1961 में पाकिस्तान का नया संविधान बना। इस संविधान में रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान और अमेरिकी ढांचे से मिलता जुलता प्रेसिडेंशियल सिस्टम अपना लिया गया। इस संविधान के तहत राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए जो 1965 में अयूब खां साहब की जीत से ख़त्म हुई। अयूब खान की विपक्षी पार्टी आवामी लीग और उसके नेता शेख-मुजीबुर्रहमान को पूर्वी पाकिस्तान में बड़ा समर्थन मिला। इस विरोध को कुचलने के लिए और बंगालियों को एकत्रित करने के लिए अयूब खान ने शेख मुजीबुर्रहमान पर देशद्रोह का मामला दर्ज कर अपना दमनचक्र शुरू कर दिया। 1969 तक अयूब खान के बाद जनरल याह्या खान ने मार्शल लॉ लगाकर संविधान को भंग कर दिया। 31 मार्च 1970 में जनरल और राष्ट्रपति याह्या खां ने एक लीगल सिस्टम जिसमे चुनावी प्रक्रिया राज्यों का गठन (पंजाब, सिंह, बलूचिस्तान और नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस) हुआ। इसमें आबादी के हिसाब से निर्वाचन क्षेत्रों को गठन हुआ और पूर्वी पाकिस्तान के हिस्से में लगभग पश्चिमी पाकिस्तान जितनी ही सीटें मिल गयीं। (पूर्वी और पश्चिमी) के पहले आम चुनाव 1970 में हुए और 300 सदस्यों वाली इनकी नेशनल असेम्बली में आवामी लीग को निर्णायक जीत (160 सीटें) मिली और जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तानी पीपल्स पार्टी सिर्फ अस्सी सीटों के साथ दुसरे नंबर पर खिसक गयी। 
पश्चिमी पाकिस्तान के जुल्फिकार अली भुट्टो ने पूर्वी पाकिस्तान की इस आवामी लीग की जीत को मानने से इंकार कर दिया और जनरल याह्या खां ने सेना का मार्शल लॉ लगाकर फिर से संसद को भंग कर दिया। इसके ठीक एक महीने के बाद पूर्वी पाकिस्तान में भोला साइक्लोन आया और उसमे लगभग पांच लाख लोग मारे गए। पश्चिमी पाकिस्तान ने किसी भी प्रकार की सहायता से दूरी बना ली और बड़ी संख्या में लोगों का भारत में पलायन शुरू हुआ। पाकिस्तानी फौजों ने दमनचक्र शुरू किया। सारे बंगाली नेता या तो मार दिए जाने लगे या फिर नज़रबंद कर दिए जाने लगे। उन्होंने ऑपरेशन सर्च-लाइट चलाकर पूर्वी पाकिस्तान के सभी बड़े नेताओं को मारना शुरू किया। इस दौरान पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में भयंकर नरसंहार किया और लगभग एक करोड़ लोग भारत में पलायन करने को मजबूर हुए। भारत ने अंतराष्ट्रीय मंचों पर इस समस्या को उठाया लेकिन किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। जनरल टिक्का खान जिसे बलूचिस्तान में दमन के लिए कई पदक मिल चुके थे ने पूर्वी मोर्चे पर अपना दमन शुरू किया। इसने अपनी सेना को आदेश दिया था, "मुझे लोग नहीं जमीन चाहिए तो जमीन साफ़ करो लोगों को साफ़ करो। "26 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान में तैनात पाकिस्तानी सेना के मेजर जियाउर्रहमान ने बांग्लादेश की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और उसके अगले दिन अंतराष्ट्रीय समुदाय से निराश इंदिरा गांधी और ने इस मुक्ति संग्राम और बांग्लादेश के स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन की घोषणा कर दी। भारत ने मुक्तिबाहिनी को ट्रेनिंग और गुरिल्ला वॉर सिखाना शुरू किया और इस आंदोलन के लिए पूरी तरह से समर्थन कर दिया। यहाँ एक बात समझने वाली है और वह यह कि यदि विश्व समुदाय ने इंदिरा गांधी को सुना होता तो शायद भारत को इस हद तक नहीं जाना पड़ता। 
नरसंहार को रोकना भारतीय सेना और मुक्ति बाहिनी का पहला काम था और उन्होंने यह काम बखूबी करना शुरू भी किया। अक्टूबर आते आते पाकिस्तानी फ़ौज कमज़ोर पड़ने लगी और पश्चिमी पाकिस्तान भारत पर आक्रमण की तैयारी का सोचने लगा। 

1971 का युद्ध 
23 नवम्बर को पाकिस्तानी जनरल याह्या खान ने आपातकाल की घोषणा करके सबको युद्ध के लिए तैयार रहने को कह दिया, अब युद्ध निश्चित हो गया था। पश्चिमी देशों, संयुक्त राष्ट्र किसी ने भी इसमें दखल देने की अभी तक कोशिश नहीं की थी। तीन दिसंबर को पाकिस्तानी वायु सेना ने भारत के पांच हवाई ठिकानों पर हमले करके युद्ध की शुरुआत कर दी और अब भारत को भी तैयार होना था। 

भारत 1965 के पाकिस्तान के ऑपरेशन द्वारिका से काफी कुछ संभल चुका था और उसने इस बार पाकिस्तान को नौसेना के फ्रंट पर सबसे पहले मारना शुरू किया। यहाँ मैं आपको बता दूँ की सात सितम्बर 1965 में पाकिस्तानी नौसेना के आठ जहानों और पनडुब्बी ग़ाज़ी ने भयंकर उत्पात मचाया था और यह भारतीय नौसेना की पहली हार थी। हाँ बाद में इन सभी जहाजों को सन 71 की लड़ाई में भारत ने नष्ट कर दिया था और इस गाज़ी को भी आईएनएस राजपूत ने 1971 में विशाखापट्टनम पोर्ट के पास डूबा दिया था। 

बहरहाल 1971 में भारत ने पाकिस्तानी नौसैनिक क्षेत्र को ऑपरेशन ट्रिडेंट, और ऑपरेशन पाइथन के जरिये एकदम बरबाद कर दिया था। युद्ध के महज़ पांच दिनों में पाकिस्तानी नौसेना ख़त्म हो चुकी थी और कराची पोर्ट, ईंधन और कई अन्य स्रोतों को भारत ने पूरी तरह से बरबाद कर दिया था। उसके बाद थल, वायुसेना ने जिस तरह पाकिस्तानी सेना को पीटा उसने विश्व को चकित कर दिया। अमेरिका और फ़्रांस के हथियार भारतीयों के रण कौशल के आगे बेकार साबित हुए। 


16 दिसंबर 1971 को पूर्वी पाकिस्तान एक नए देश बांग्लादेश का रूप ले चुका था और लगभग नब्बे हज़ार युद्ध बंदियों के साथ पाकिस्तान एक बहुत ही निराशाजनक हार झेल रहा था। 

विश्व समुदाय और भारत 
यहाँ तक तो सब ठीक लग रहा है लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। पूरे विश्व में भारत ने कभी भी अपने डिप्लोमेटिक रिश्ते सुधारने की बात की ही नहीं। इस युद्ध में भारत के पक्ष में सोवियत संघ के अलावा कोई भी देश नहीं था। यहाँ तक कि श्रीलंका जैसा देश भी पश्चिमी देशों के दवाब में पाकिस्तानी जहाजों को तेल भरने देने की इजाजत दे रहा था। 

अब एक नज़र डालते हैं अमेरिकी सरकार द्वारा डी-क्लासिफाई किये डॉक्यूमेंट पर। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन और तत्कालीन अमेरिकी रक्षा सलाहकार किसिंजर के बीच हुए वार्तालाप पर, जिसमे उन्होंने पाकिस्तान को हर संभव मदद की बात कही। उन्होंने चीन पर दवाब बनाने और भारत को उत्तर में घेरने के लिए कहने की बात कही, फ्रांस को सस्ते में हथियार देने की बात कही और ब्रिटेन को पाकिस्तानी नौसेना की मदद करने को कहा।  

Of course, no country, not even the United States, can prevent massacres everywhere in the world — but this was a close American ally, which prized its warm relationship with the United States and used American weapons and military supplies against its own people.

उन्होंने अपनी सेवंथ फ्लीट को भारत के खिलाफ युद्द के लिए बंगाल की खाड़ी भेजा, यह डॉक्यूमेंट कुछ यह कहता है...   

"The assessment of our embassy reveal (sic) that the decision to brand India as an 'aggressor' and to send the 7th Fleet to the Bay of Bengal was taken personally by Nixon," says the note. The note further says, the Indian embassy: "feel (sic) that the bomber force aboard the Enterprise had the US President's authority to undertake bombing of Indian Army's communications, if necessary."

संयुक्त राष्ट्र में दिसंबर 1971 में भारत के खिलाफ अमेरिका एक प्रस्ताव लाया (S/10446/Rev. 1) जिसमे आर्थिक प्रतिबन्ध से लेकर, युद्ध छेड़ने की बात तक कही गयी जिसे सोवियत संघ ने वीटो कर दिया और अमेरिकी नीयत के खिलाफ भारत का पुरजोर तरीके से समर्थन किया। उन्होंने चीन को इस कदर डरा दिया की अगर अमेरिका की इच्छा को मानते हुए चीन में उत्तर में भारत पर आक्रमण किया तो फिर सोवियत संघ चीन को घेर लेगा। इसी तरह अमेरिका चाहता था कि खाड़ी के देश भी पाकिस्तान का समर्थन करें और उन सभी को सोवियत संघ ने डरा दिया की भारत पर हमला सोवियत संघ पर हमला होगा और भारत इस समर्थन के कारण ही इस लड़ाई में इतना आक्रामक था। मैं राष्ट्रपति निक्सन और किसिंजर के बीच हुए वार्तालाप को नहीं लिख सकता क्योंकि वह बहुत ही आपत्ति जनक है लेकिन यह समझना ज़रूर है की भारत विश्व समुदाय में सोवियत संघ के अलावा हर देश के अछूत था। पश्चिम के तथाकथित लोकतांत्रिक प्रणाली पर चलने वाले शांतिप्रिय देश लोकतांत्रिक भारत पर हमले और नाजी आंदोलन के बाद के सबसे भयंकर नरसंहार के ज़िम्मेदार पाकिस्तान के समर्थन के लिए इस कदर पगलाए थे। 

भारत की सरकार के लिए यह विदेश नीति की एक भयंकर हार थी, दरअसल नेहरू ने कभी इस दिशा में सोचा ही नहीं और शास्त्रीजी कुछ कर पाते उसके पहले ही साज़िश का शिकार बन गए। इंदिरा गांधी ने भी कमोबेश उसी नीति को चालू रखा और हम संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी बर्चस्व के खिलाफ कभी जा ही नहीं पाये। इस युद्ध में भी पाकिस्तान बुरी तरह से पस्त था और सोवियत संघ का भारत को पूर्ण समर्थन, अमेरिकी सैन्य बलों के किसी भी दुस्साहस के लिए भारत के समर्थन में मास्को का इस तरह से खड़ा हो जाना एक बहुत बड़ी वजह थी वरना बंगाल की खाड़ी में भारत के खिलाफ अमेरिकी युद्धपोत पूरी सजगता से लगे हुए थे। शायद अमेरिका और सोवियत संघ एक दुसरे के खिलाफ युद्ध लड़ने की स्थिति में नहीं थे और यह सिर्फ डराने और दवाब बनाने के लिए अधिक था। 

मेरे विचार से 1971 भारत के लिए महत्त्वपूर्ण जीत और भारतीय विदेश नीति के लिए बहुत बड़ी हार थी। विश्व समुदाय को इस नरसंहार के विरोध में खड़ा होना चाहिए था और भारत का समर्थन करना चाहिए था। 

कुछ महत्त्वपूर्व लिंक्स :

http://www.thepoliticalindian.com/bangladesh-victory-day/

http://www.rediff.com/news/slide-show/slide-show-1-three-indian-blunders-in-the-1971-war/20111212.htm

http://timesofindia.indiatimes.com/india/US-forces-had-orders-to-target-Indian-Army-in-1971/articleshow/10625404.cms



गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

निष्पक्ष पत्रकारिता?

पत्रकार कभी भी निष्पक्ष राजनीतिक सोच नहीं रख सकता क्योंकि वह भी एक मनुष्य है और उसका भी अपना एक दृष्टिकोण है। इस दृष्टिकोण में वह किसी न किसी सोच से प्रभावित होगा ही, वह भले कोई भी राजनैतिक दल हो। कोई पत्रकार निष्पक्ष रहने का प्रयास करे वह या तो झूठ बोलकर सामने वाले को खुश रखने का प्रयास करेगा या फिर सत्ता परिवर्तन के बाद विपक्षी दल के सत्ता में आने के बाद खुद की दुकानदारी चलाने के लिए चाटुकारी करेगा। फ़िलहाल भारत में हमेशा से यही होता आया, कांग्रेसी सोच वाले पत्रकार, एमएलए, एमपी के रिश्तेदार पत्रकारिता को चमकाए रहे और खबरिया दलाली चमकती रही। निष्पक्षता का तो खैर जाने की दीजिये लेकिन मुख्य रूप से पत्रकारिता सत्ता की गलियारों में रेड कार्पेट पर सुख और सुकून से चलती रही। प्रधानमन्त्री के साथ विदेश यात्राओं में जाना, इंटरव्यू के नाम पर मौज उड़ाना, पूरी ऐश चलती रही।

वामपंथी सोच वाले पत्रकारिता के विद्यार्थियों का तो कहना ही क्या! यह तो पैदा ही क्रान्ति करने के लिए हुए थे सो क्रांति ही करेंगे। हर जगह क्रांति, बस स्टैंड में क्रांति, बस में जगह के लिए क्रांति, स्कूल में क्रांति, घर में बाहर में हर जगह क्रांति ही क्रांति, इस क्रांतिकारी सोच के जलजले को शांत करने के लिए एक पेग लेना ज़रूरी हो जाता है सो एक स्कॉच की बोतल से इस क्रांतिकारी का दिमाग शांत होता है। यह क्रांति फिर स्त्री पुरुष की समानता के नाम पर किसी भी स्तर पर जाने को तैयार होती है, अब वह सब जायज है क्योंकि क्रांति तो करनी ही है न, क्रांति की ज्वाला को शांत करने के लिए कभी शराब तो कभी अफीम तो कभी पोर्न खाया पिया और देखा जाता है... यह सब करने के बाद ही क्रांतिकारी के अंदर की आग शांत होती है। इस क्रन्तिकारी सोच में दाढ़ी बनाने, नहाने, साफ़ सफाई जैसी छोटी और तुच्छ चीजो के लिए समय ही कहाँ मिल पाता है सो सभी वामी विद्यार्थी एकदम स्कॉलर दिखने के लिए दाढ़ी बढ़ाए रहते हैं, यह उनका ड्रेस कोड है, जो जितना अस्त व्यस्त दिखेगा उसे पत्रकारिता उतना ही अच्छा प्लेसमेंट मिलेगा।

जब इनकी क्रन्तिकारी सोच देश की सीमाओं के परे पाकिस्तान परस्ती पर उतर जाती है तब हम जैसों को तकलीफ होने लगती है। मामला देश के सम्मान से जुड़ा हुआ हो तब कोई समझौता नहीं...

समझ में आया या नहीं?

बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

उत्तर प्रदेश का यादव घोटाला

इस समय उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार है और इन्होने सरकारी अमला इस कदर बरबाद किया है जिसकी कोई अन्य मिसाल देश में देखने को नहीं मिलेगी। पीसीएस (उत्तर प्रदेश प्रशासनिक आयोग), 2014 की मेरिट लिस्ट पर नज़र डालिये: 

रागेश कुमार यादव - 140 
राहुल यादव- 140
सुरेंद्र यादव- 136
अमिताभ यादव- 140
मायाशंकर यादव- 138
अरविंद कुमार यादव- 140
सिद्धार्थ यादव- 138
धनवीर यादव- 137
ज्योत्स्ना यादव- 138
सोमलता यादव- 138
ब्रजेश यादव- 138
रवींद्र प्रताप यादव- 137
राम अशोक यादव- 139
राम कुमार यादव- 140
सत्येंद्र बहादुर यादव-138
शिव कुमार यादव- 139
अनिल कुमार यादव- 139
नीतू यादव- 138
अशोक कुमार यादव- 137
देव कुमार यादव- 140
रमेश चंद्र यादव- 140
सुप्रिया यादव- 139
विकास यादव- 139
सुशील कुमार यादव- 140
ममता यादव- 140

किस तरह से यादव जाति के कैंडिडेट्स को 140 और 138 नंबर दिए गए हैं, इस पर आजतक ने एक स्टिंग ऑपरेशन किया था लेकिन उसके बाद वह खामोश हो गए। कोई कारण होगा जो गिनाना यहाँ वाज़िब नहीं है। लेकिन अगर मैं आजतक की ही पोस्ट को कॉपी पेस्ट करूँ तो यह पढ़िए: 

"लेकिन वोट की राजनीति से परे उत्तर प्रदेश के लोक सेवा आयोग में जब मेरिट लिस्ट पर यादव राज सवार हो जाए, तो इल्‍जाम लगना लाजिमी है. जी हां, समाजवादी पार्टी का 'वोट बैंक' अब लोक सेवा आयोग में भी गजब ढा रहा है| अब तक तो जाति के वोट बैंक के नाम पर सांसद और विधायक बन रहे थे, लेकिन अब यूपी में एसडीएम और डिप्टी एसपी भी वोट बैंक में से निकल रहे हैं. जो अधिकारी आगे चलकर डीएम, एसपी, कमिश्नर, डीआईजी-आईजी की कुर्सी पर विराजेंगे, उनकी खासियत सिर्फ और सिर्फ एक खास जाति होगी" जी हां, विकास धर और हिमांशु कुमार गुप्ता को इंटरव्यू में 102 और 115 नंबर मिले, लेकिन रागेश कुमार यादव पूरे के पूरे 140 लेकर आगे निकल गए. अंकुर सिंह, विनीत सिंह और अभिषेक सिंह को मेन्स यानी लिखित परीक्षा में ज्यादा नंबर मिले हैं, लेकिन इंटरव्यू में 113, 115 पर ही वो सिमट गए, जबकि सुरेंद्र प्रसाद यादव लिखित परीक्षा में काफी पीछे हैं, लेकिन इंटरव्यू में 136 नंबर पाकर फाइनल लिस्ट में जगह बना ली. अमिताभ यादव और मायाशंकर यादव भी जाति के नाम पर इंटरव्यू के नंबर लूटने में कामयाब रहे, जबकि जनरल कटगरी के बाकी उम्मीदवारों की योग्यता इंटरव्यू में दम तोड़ गई."
इलाहाबाद उच्च न्यायालय में किसी ने इस पर जनहित याचिका दायर की जिसमे हवाला दिया गया कि कैसे 389 से 72 यादव बिना योग्यता के सिर्फ सिफारिश के चलते चुने गए, 86 में से 56 उपजिलाधिकारी यादव ही कैसे हो गए? लोक सेवा आयोग की परीक्षा में पचास प्रतिशत से अधिक सिर्फ यादव ही हैं। कारण साफ़ है की वोट बैंक की राजनीति के चलते उत्तर प्रदेश में यादव राज चालू है। एक दरोगा से लेकर एसडीएम तक सिर्फ यादव ही यादव। 

उत्तर प्रदेश में चपरासी के पद के लिए पीएचडी तक का आवेदन आया, लेकिन भर्ती की न्यूनतम योग्यता तो "यादव" होना होगी। उसके बाद यादवजी प्रोफ़ाइल शोर्टलिस्ट करेंगे फिर यादवजी इंटरव्यू के लिए न्यौता भेजेंगे फिर यादवजी लोगों का इंटरव्यू लेंगे फिर यादवजी यादवजी को यादवजी को अंदर लाने कहेंगे फिर यादवजी, यादवजी के कहने के बाद यादवजी के कहने पर यादवजी को कह देंगे कि यादवजी के कहने के अनुसार यादवजी ही यादवजी का ऑफ़र लेटर साइन करेंगे.... बहरहाल बहुत बुरे हालात है।

हमारी मेन स्ट्रीम मीडिया ऐसे घोटाले की खबर नहीं दिखाएगी, आजतक ने भी 2014 में दिखाया और फिर उसके बाद इतिश्री कर ली, कोई समाजवादी डील हो गयी होगी तो बाकी कोई कोई फर्क नहीं.... हाँ अगर ऐसा कुछ मोदी ने किया होता तब भी क्या मीडिया, एवार्ड वापसी गैंग, देशद्रोही बुद्धिजीवी यूँ ही खामोश रहते?