आज कल देश विदेश में राजनैतिक उठापटक एक विचित्र मोड़ पर है, कल के दुश्मन आज के दोस्त हैं और कल के दोस्त आज तल्ख़ सम्बन्धों के दौर से गुज़र रहे हैं। दक्षिण एशिया किसी अखाड़े सरीखा या यूँ कहें की अमेरिका, यूरोप, रूस और चीन के लिए कूटनैतिक और वर्चस्व के लिए उपयुक्त मैदान बन रहा है। आइये आज इतिहास के कुछ पन्नों को टटोलते हुए उस बात को समझने का प्रयास करते हैं जिसने भारत को विश्व मंडल पर सबसे बड़े बाज़ार के रूप में खड़ा कर दिया है और भारत की इसी स्थिति ने उसे कई मित्र और शत्रु दिए हैं।
"आइये जानते हैं चीन और भारत एक ही समय तथाकथित स्वतन्त्र हुए लेकिन फिर भी चीन भारत से लगभग तीन गुनी बड़ी अर्थव्यवस्था कैसे बन गयी। शायद आर्थिक सुधार की प्रक्रिया एक वामपंथी देश ने एक लोकतान्त्रिक देश से पहले समझ ली और विश्व के मिजाज को भांपते हुए सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में ही आर्थिक सुधारों की नींव रख दी। चीन न सिर्फ विश्व के लिए पहली फैक्ट्री बन बैठा बल्कि उसने अपनी आर्थिक नीति को इस तरह से बदला कि अमेरिका जैसा देश भी अपने देश का कच्चा माल चीन भेज कर वहां से तैयार माल खरीदने के लिए मजबूर हो गया। एक ताला-चाभी से लेकर हैलीकॉप्टर के पुर्जे तक सब कुछ बनाने के लिए चीन ने अपना बाज़ार खोल दिया और स्थिति को इस कगार पर पहुंचा दिया कि अब चीन की सरकार जब अपने ब्याज दर को निर्धारित करती है तब अमेरिका का शेयर बाज़ार हिलने लगता है। एक समय के मित्र देश अब प्रतिद्वंदी बन रहे हैं और जो स्थिति एक समय पहले अमेरिका और सोवियत संघ की थी कुछ वैसी ही अब अमेरिका और चीन की हो रही है। मित्रों शीत युद्ध के दौरान विश्व में शक्ति के दो केंद्र थे, अमेरिका और सोवियत संघ। सभी छोटे देश इनमे से किसी एक के ही मित्र देश बने रह सकते थे। जब भारत और सोवियत संघ में बीच मित्रता जगजाहिर हुई तब पाकिस्तान ने अमेरिका से मित्रता के लिए पहल की। सोवियत संघ के खिलाफ मोर्चे की स्थिति में लिए अमेरिका को भी एक दोस्त की तलाश थी और इसी कारण से अमेरिका ने पाकिस्तान को अस्त्र दिए, शस्त्र दिए, आर्थिक सहायताएं दी। अमेरिका को साम्यवाद के विरुद्ध मोर्चा बनाने के लिए जिस प्रकार के सहभागी की ज़रूरत थी उसके लिए पाकिस्तान पूरी तरह से उपयुक्त था। उन्नीस सौ पैंसठ के युद्ध में पाकिस्तान को भारत के खिलाफ शुरूआती बढ़त मिली थी और अमेरिकी हथियारों से सुसज्जित पाकिस्तानी सेना ने ऑपरेशन द्वारिका में भयंकर तबाही मचाकर भारत को बैकफुट पर धकेल दिया था। वह तो शास्त्रीजी जैसा नेतृत्व और विश्व में सबसे साहसिक सैन्य बल होने के कारण भारत ने स्थिति को पलटकर पाकिस्तान और अमेरिका को धूल चटा दी थी। सन बहत्तर की लड़ाई में जब इंदिरा गांधी जैसी मजबूत इरादों वाली महिला ने पाकिस्तान को पूरी तरह कन्टेन करने का मन बना लिया था तब इंदिरा कैबिनेट के ही किसी विश्वासपात्र व्यक्ति की गद्दारी और सीआईए को सूचना लीक करने के कारण ही स्थिति बदल गयी थी। अमेरिका ने अपने मित्र पाकिस्तान को बचाने के लिए अपनी नौसेना का एक बेड़ा बंगाल की खाड़ी में रवाना किया था। सोवियत संघ ने सहायता का वायदा किया था लेकिन भारत अमेरिका से सीधी टक्कर लेने की स्थिति में नहीं था और इसी कारण लाख लोगों के आत्मसमर्पण करने के बाद भी उन्हें छोड़ा गया और भारत ने पश्चिमी पाकिस्तान से सेना वापस बुला ली।"
मित्रों कहने का सीधा अर्थ यह ही है कि अमेरिका भारत का कभी भी मित्र नहीं रहा है। यह सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए विश्व भर में समस्याएं खड़ी करता आया है। आज विश्व में विकाशशील देश बड़े बाज़ार बनकर उभरे हैं और इन देशों में बढ़ता हुआ समाज अपने आप में अमेरिका सरीखे देशों के लिए कमाई का एक बड़ा जरिया बनकर उभरे हैं। भारत को भी रोजगार चाहिए और यह निवेश के जरिये ही हो सकता है। नेहरू के औद्योगीकरण के मॉडल की दिशाहीन नीति को जब नरसिम्हाराव ने ठीक दिशा दी और फिर उसे ही अटल बिहारी और मनमोहन सरकार ने आगे बढ़ाया, जब भारत की विकास दर 11.4 प्रतिशत हुई तब भारत को विश्व ने गम्भीरता से लेना शुरू किया। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई कांग्रेस सरकार के समय में भारत और भारत के बारे में नजरिया बहुत ही नकारात्मक होता गया, जो क्षवि बन रही थी वह बिखरने लगी। सरकार में ही सत्ता के कई समानांतर केंद्र होते गए और लगभग हर रेटिंग एजेंसी ने भारत को नकारात्मक श्रेणी में डाल दिया। रोज नए भ्रष्टाचार के बाद 2014 लोकसभा चुनाव के बाद मोदी प्रधानमन्त्री बने तब उन्होंने सबसे पहले इसी परसेप्शन को ठीक करने की ज़िम्मेदारी उठाई। नकारात्मकता को दूर करते हुए उन्होंने भारत के सकारात्मक पहलु को उठाना शुरू किया, विश्व में दौरे किये और निवेश के लिए भारत को बाकायदा एक बाज़ार की तरह प्रस्तुत किया। इसका नतीजा महज़ दो वर्ष में भारत ने अमेरिका और चीन को पीछे छोड़कर निवेश के लिए सबसे आगे निकल गया। प्रगति के मार्ग पर विकासदर एक आंकड़ा भर नहीं है यह विश्व भर के लिए प्रगति का एक सन्देश होता है और यह बाहरी निवेश के लिए देश की क्षवि को बनाने के लिए निर्णायक हो सकता है।
बहरहाल अब भारत विश्व के बड़े देशों के लिए एक बाज़ार है, आज अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत के बढ़ते कदम से विश्व अचरज में है और अब शिक्षा क्षेत्र से लेकर विज्ञान, सूचना प्रौद्योगिकी तक पर जगह भारतीयों ने अपना डंका बजाया है। मोदी सरकार ने पिछले दो वर्षों में वैश्विक पटल पर कूटनीति का एक नया दौर शुरू किया और कांग्रेस के नकारात्मक विदेश नीति से इतर एक नए दौर का सूत्रपात किया। इस दौर में भारत ने हिन्द महासागर में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए सेशेल्स और मालदीव्स में केंद्र, ईरान में बंदरगाह की स्थापना ताकि पाकिस्तान को बिल्कुल अलग-थलग किया जा सके। अमेरिका भी भारत के सुर में सुर मिला रहा है और पहली बार पश्चिम पाकिस्तान के नहीं बल्कि भारत के पक्ष में खड़ा दिख रहा है।
मोदी के प्रयास भारत की कूटनीतिक सफलता के लिए बेहद जरूरी हैं और वह इसे बखूबी समझते भी हैं। देश का विपक्ष भले कुछ भी कहे लेकिन सत्य यही है कि आज अमेरिका ने भी भारत-अमेरिका नीति को मोदी-सिद्धांत कहकर सम्मान दिया है। भले बांग्लादेश से सीमा विवाद हो या पाकिस्तान को लेकर नीति हो हर मोर्चे पर मोदी पिछली सरकारों से कहीं बेहतर काम करते दिख रहे हैं। अमेरिका में रहकर भारत के बारे में पिछले दो सालों में बदले रवैये को मैंने स्वयं महसूस किया है सो इतना कह सकता हूँ कि विदेश नीति को लेकर मोदी से बेहतर फिलहाल भारत में तो कोई नहीं है।
सच कहूं तो असली मायने में विश्व बदल रहा है और विश्व की सोच बदल रही है, इस बदलते हुए समय में भारत को रूढ़िवादी सोच से निकलकर आगे बढ़ना होगा, पूरे देश को सम्भालना है और एक नयी दिशा देनी है। सरकार कोई भी हो, यदि हर सामान्य से सामान्य भारतीय भी अपनी ज़िम्मेदारी समझे तो भी देश की तरक्की होती रहेगी। एक सामान्य नागरिक की तरह हमें अतिवाद से बचते हुए सकारात्मक रवैया बनाए रखना चाहिए।
2 टिप्पणियां:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "११ जून का दिन और दो महान क्रांतिकारियों की याद " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सामयिक और विस्तृत जानकारी से भरा लेख । आपको बधाई इसकी प्रस्तुति के लिये।
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