प्रखर युवा, ऊर्जावान युवा, निरोगी, स्वस्थ, प्रसन्न, आत्मविश्वास से भरा युवा किसी भी देश की सबसे बड़ी निधि होता है। अपने यथार्थ से अनजान और भटक गया युवा किसी भी देश और समाज के लिये किसी घाव के समान ही होता है। हमारे देश का एक सामान्य युवा भी ठीक इसी स्थिति में है और नई पीढ़ी का अपने इतिहास और वर्तमान से भटकाव अपनी चरम सीमा पर है और अन्य सभ्यताओं की तुलना में खुद को मॉडर्न दिखाने के लिए अपने ही इतिहास और परंपराओं को गलत साबित करने की जल्दबाजी आज के युवा में घर कर गयी है। उदाहरण के लिए यदि आप किसी को अपनी परंपराओं, रीति रिवाजों के वैज्ञानिक दॄष्टि कोण को कहने समझाने का प्रयास करेंगे तो वह आपको ही हार्ड-लाइनर कहके किनारे कर देगा। मॉडर्नाइजेशन इस हद तक हो गया है कि अपने इतिहास की बात करने पर लोग आपको पिछड़ा घोषित कर देंगे। अब इन अकल के अंधों को तो क्या ही जगाएं लेकिन आज के दिन आइये थोड़ा खुद का इतिहास समझ लेते हैं...
शून्य से ही शुरुआत कर लेते हैं
शून्य का आविष्कार किसने और कब किया यह आज तक अंधकार के गर्त में छुपा हुआ था, परंतु गहन अध्ययन के बाद सम्पूर्ण विश्व में यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि शून्य का आविष्कार भारत में ही हुआ। अधिकतम विद्वानों का मत है कि पांचवीं शताब्दी के मध्य में शून्य का आविष्कार किया गया। भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलवेत्ता आर्यभट्ट ने कहा 'स्थानं स्थानं दसा गुणम्' अर्थात् दस गुना करने के लिये (उसके) आगे (शून्य) रखो। और शायद यही संख्या के दशमलव सिद्धांत का उद्गम रहा होगा। आर्यभट्ट द्वारा रचित गणितीय खगोलशास्त्र ग्रंथ 'आर्यभट्टीय' के संख्या प्रणाली में शून्य तथा उसके लिये विशिष्ट संकेत सम्मिलित था (इसी कारण से उन्हें संख्याओं को शब्दों में प्रदर्शित करने के अवसर मिला)। प्रचीन बक्षाली पाण्डुलिपि में, जिसका कि सही काल अब तक निश्चित नहीं हो पाया है परंतु निश्चित रूप से उसका काल आर्यभट्ट के काल से प्राचीन है, शून्य का प्रयोग किया गया है और उसके लिये उसमें संकेत भी निश्चित है। उपरोक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि भारत में शून्य का प्रयोग ब्रह्मगुप्त के काल से भी पूर्व के काल में होता था।
शून्य तथा संख्या के दशमलव के सिद्धांत का सर्वप्रथम प्रयोग ब्रह्मगुप्त रचित ग्रंथ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त में पाया गया है। इस ग्रंथ में ऋणात्मक संख्याओं (negative numbers) और बीजगणितीय सिद्धांतों का भी प्रयोग हुआ है। सातवीं शताब्दी, जो कि ब्रह्मगुप्त का काल था, शून्य से सम्बंधित विचार कम्बोडिया तक पहुँच चुके थे और दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि बाद में ये कम्बोडिया से चीन तथा अन्य मुस्लिम संसार में फैल गये। इस बार भारत में हिंदुओं के द्वारा आविष्कृत शून्य ने समस्त विश्व की संख्या प्रणाली को प्रभावित किया और संपूर्ण विश्व को जानकारी मिली। मध्य-पूर्व में स्थित अरब देशों ने भी शून्य को भारतीय विद्वानों से प्राप्त किया। अंततः बारहवीं शताब्दी में भारत का यह शून्य पश्चिम में यूरोप तक पहुँचा।
भारत का 'शून्य' अरब जगत में 'सिफर' (अर्थ - खाली) नाम से प्रचलित हुआ। फिर लैटिन, इटैलियन, फ्रेंच आदि से होते हुए अंग्रेजी में 'जीरो' बन गया।
ज्यामिति
ज्यामिति के विषय में प्रमाणिक मानते हुए सारे विश्व में यूक्लिद की ही ज्यामिति पढ़ाई जाती है। मगर यह स्मरण रखना चाहिए कि महान यूनानी ज्यामितिशास्त्री यूक्लिड के जन्म के कई सौ साल पहले ही भारत में रेखागणितज्ञ ज्यामिति के महत्वपूर्ण नियमों की खोज कर चुके थे, उन रेखागणितज्ञों में बौधायन का नाम सर्वोपरि है। भारत में रेखागणित या ज्यामिति को शुल्व शास्त्र कहा जाता था।
दीर्घचतुरश्रस्याक्ष्णया रज्जु: पार्श्र्वमानी तिर्यग् मानी च यत् पृथग् भूते कुरूतस्तदुभयं करोति॥
२ का वर्गमूल: आपस्तम्ब शुल्बसूत्र में निम्नलिखित श्लोक २ का वर्गमूल का सन्निकट मान बताता है- समस्य द्विकरणी, प्रमाणं तृतीयेन वर्धयेत्तच्च चतुर्थेनात्मचतुस्त्रिंशोनेन सविशेषः
वर्ग का विकर्ण (समस्य द्विकरणी) - इसका मान (भुजा) के तिहाई में इसका (तिहाई का) चौथाई जोड़ने के बाद (तिहाई के चौथाई का) ३४वाँ अंश घटाने से प्राप्त होता है।
बात यदि अपने स्वर्णिम इतिहास की करें तो आर्यभट्ट और पाणिनि को याद करना ही होगा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है। उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत्
अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लङ्कायाम् ॥ (आर्यभटीय गोलपाद ९)
जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है।
अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता है:
उदय-अस्तमय-निमित्तम् नित्यम् प्रवहेण वायुना क्षिप्तस्।
लङ्का-सम-पश्चिम-गस् भ-पञ्जरस् स-ग्रहस् भ्रमति ॥ (आर्यभटीय गोलपाद १०)
"गोलपाद" में आर्यभट ने लिखा है "नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।"
क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति
गणितपाद ६ में, आर्यभट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है-
त्रिभुजस्य फलाशारिरम समदलाकोटि भुजर्धसमवर्गः इसका अनुवाद है: एक त्रिकोण के लिए, अर्ध-पक्ष के साथ लम्ब का परिणाम क्षेत्रफल है।
आर्यभट ने अपने काम में द्विज्या (साइन) के विषय में चर्चा की है और उसको नाम दिया है अर्ध-ज्या इसका शाब्दिक अर्थ है "अर्ध-तंत्री" । आसानी की वजह से लोगों ने इसे ज्या कहना शुरू कर दिया। जब अरबी लेखकों द्वारा उनके काम का संस्कृत से अरबी में अनुवाद किया गया, तो उन्होंने इसको जिबा कहा (ध्वन्यात्मक समानता के कारणवश) । चूँकि, अरबी लेखन में, स्वरों का इस्तेमाल बहुत कम होता है, इसलिए इसका और संक्षिप्त नाम पड़ गया ज्ब । जब बाद के लेखकों को ये समझ में आया कि ज्ब जिबा का ही संक्षिप्त रूप है, तो उन्होंने वापिस जिबा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जिबा का अर्थ है "खोह" या "खाई" (अरबी भाषा में जिबा का एक तकनीकी शब्द के आलावा कोई अर्थ नहीं है)। बाद में बारहवीं सदी में, जब क्रीमोना के घेरार्दो ने इन लेखनों का अरबी से लैटिन भाषा में अनुवाद किया, तब उन्होंने अरबी जिबा की जगह उसके लेटिन समकक्ष साइनस को डाल दिया, जिसका शाब्दिक अर्थ "खोह" या खाई" ही है। और उसके बाद अंग्रेजी में, साइनस ही साइन बन गया।
ग्रहण: उन्होंने कहा कि चंद्रमा और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं। मौजूदा ब्रह्माण्ड विज्ञान से अलग, जिसमे ग्रहणों का कारक छद्म ग्रह निस्पंद बिन्दु राहू और केतु थे, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया से सम्बद्ध बताया। इस प्रकार चंद्रगहण तब होता है जब चाँद पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (छंद गोला. ३७) और पृथ्वी की इस छाया के आकार और विस्तार की विस्तार से चर्चा की (छंद गोला. ३८-४८) और फिर ग्रहण के दौरान ग्रहण वाले भाग का आकार और इसकी गणना। बाद के भारतीय खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किया, लेकिन आर्यभट की विधियों ने प्रमुख सार प्रदान किया था। यह गणनात्मक मिसाल इतनी सटीक थी कि 18 वीं सदी के वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने, पांडिचेरी की अपनी यात्रा के दौरान, पाया कि भारतीयों की गणना के अनुसार १७६५-०८-३० के चंद्रग्रहण की अवधि ४१ सेकंड कम थी, जबकि उसके चार्ट (द्वारा, टोबिअस मेयर, १७५२) ६८ सेकंड अधिक दर्शाते थे।
आर्यभट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि ३९,९६८.०५८२ किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान ४०,०७५.०१६७ किलोमीटर से केवल ०.२% कम है। यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ, एराटोसथेंनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था,२०० ई.) जिनका गणना का आधुनिक इकाइयों में तो पता नहीं है, परन्तु उनके अनुमान में लगभग ५-१०% की एक त्रुटि अवश्य थी।
नक्षत्रों के आवर्तकाल: समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट की गणना के अनुसार पृथ्वी का आवर्तकाल (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि)) २३ घंटे ५६ मिनट और ४.१ सेकंड थी; आधुनिक समय २३:५६:४.०९१ है। इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि ३६५ दिन ६ घंटे १२ मिनट ३० सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें ३ मिनट २० सेकंड की त्रुटि है। नक्षत्र समय की धारण उस समय की अधिकतर अन्य खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, परन्तु संभवतः यह संगणना उस समय के हिसाब से सर्वाधिक शुद्ध थी।
भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट के कार्य का बड़ा प्रभाव था और अनुवाद के माध्यम से इसने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया। इस्लामी स्वर्ण युग (ई. ८२०), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था। उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है और १० वीं सदी के अरबी विद्वान अल-बिरूनी द्वारा उन्हें सन्दर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
आर्यभट की खगोलीय गणना की विधियां बहुत प्रभावशाली थी। त्रिकोणमितिक तालिकाओं के साथ, वे इस्लामी दुनिया में व्यापक रूप से इस्तेमाल की गायन और अनेक अरबी खगोलीय तालिकाओं (जिज) की गणना के लिए इस्तेमाल किया। विशेष रूप से, अरबी स्पेन वैज्ञानिक अल-झर्काली (११वीं सदी) के कार्यों में पाई जाने वाली खगोलीय तालिकाओं का लैटिन में तोलेडो की तालिकाओं (१२वीं सदी) के रूप में अनुवाद किया गया और ये यूरोप में सदियों तक सर्वाधिक सूक्ष्म पंचांग के रूप में इस्तेमाल में रही। आर्यभट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, इन्हे इस्लामी दुनिया को भी प्रेषित किया गया, जहाँ इनसे जलाली तिथिपत्र का आधार तैयार किया गया जिसे १०७३ में उमर खय्याम सहित कुछ खगोलविदों ने प्रस्तुत किया, जिसके संस्करण (१९२५ में संशोधित) आज ईरान और अफगानिस्तान में राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में प्रयोग में हैं। जलाली तिथिपत्र अपनी तिथियों का आंकलन वास्तविक सौर पारगमन के आधार पर करता है, जैसा आर्यभट (और प्रारंभिक सिद्धांत कैलेंडर में था).इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है। यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी।
कहने का अर्थ यह है कि विश्व ने पढ़ा तो आर्यभट्ट और बौधायन को लेकिन पश्चिमी चाल चलन की नक़ल करने के कारण हम स्वयं ही सत्य नहीं जान पाए। त्रिकोणमिति के सिद्धांत से लेकर कैलकुलस, शून्य, दशमलव, पाई, खगोलशास्त्र तक विज्ञान और गणित में अपने योगदान को न मानना और अंग्रेजी शिक्षा को ही सर्वोपरि मानकर सत्य को नकार देना गलत ही है।
वैसे इतिहास का सिलेबस और हमें रटाया गया इतिहास हमारी पीढ़ी के साथ किया गया सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है, उदाहरणार्थ यदि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो या सिंधु घाटी की सभ्यता को भारतीय सभ्यता का आरंभकाल माना जाए तो यह क्या सही होगा? गंगा के किनारे बसे हुए शहर, गाँव और सभ्यताएँ आखिर किस संस्कृति का हिस्सा कहलाएंगी? यदि नेपाल का जानकी मंदिर, चित्रकूट में राम का प्राकट्य, दंडकवन से लेकर रामेश्वरम और रामसेतु सत्य है तो फिर राम मिथ्या कैसे? जब मैं अमेरिकी संग्रहालयों में चीन, मध्य अफ्रीका के ऐतेहासिक प्रमाण देखता हूँ और यह दीखता है कि कैसे भारत को पूरी तरह से नज़रंदाज़ किया गया है, वैसे उसके पीछे कारण अमेरिका या पश्चिमी देशों का भारत के प्रति दुराग्रह ही है सो उसपर क्या ही कहा जाए लेकिन हमारी सरकारें भी कम दोषी नहीं।
भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा २००५ को दिए गए इस रिपोर्ट में ईसा से आठ हज़ार वर्ष पूर्व नष्ट हुए द्वारका के बारे में कुछ यूँ कहा गया है। इसकी कार्बन डेटिंग की जानकारी आप इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं।
मित्रों सनातन संस्कृति में मृत्यु के उपरान्त शरीर को पञ्च तत्व में लीन करने के अनुशासन का अनंत काल से पालन हो रहा है सो हमारे यहाँ शरीर के अंश नहीं रखे और बचाए जाते सो सभ्यताओं के चिन्ह बचते नहीं। पौराणिक शिक्षाएं मूलतः मौखिक और नैतिक शिक्षा के आधार पर चलती थी जो कि गुप्त काल में अपने स्वर्णिम काल में थीं लेकिन हमारी गलतियों के कारण सभ्यताओं के इतिहास और चिन्ह बच नहीं पाए। मेरे विचार से इसके बारे में हमारे पूर्वजों से भयंकर भूलें हुई हैं। वहीँ इसके इतर मिस्र के पिरामिडों में अपने ऐतेहासिक प्रमाण बचाए गए इस्लामिक आतंकियों की कब्रें पीर बाबा बनकर आज भी जीवित हैं।आज गणतंत्र दिवस के दिन स्वामी विवेकानंदजी की एक लाइन को जरूर कहूँगा जिसमे उन्होंने कहा कि देश का युवा अपने इतिहास को पहचाने जिसमें सनातन धर्म और संस्कृति अपने योग, आध्यात्मिक और वैदिक महात्म्य, पुराणों, वेदों, दंतकथाओं से होकर गुज़री और हज़ारों वर्षों तक फली फूली और बढ़ती रही और वसुधैव कुटुम्बकम की परंपराओं पर चलते हुए विश्व मंगल के लिए दिन रात प्रयत्नशील रही। देश का युवा अपनी स्थिति को पहचाने और इस संस्कृति पर गौरव करे और पीढ़ियों का मार्गदर्शन करे...
कहना गलत नहीं होगा कि पिछली पीढ़ी ने जो अपराध किये हैं, ठीक वही आज की पीढ़ी भी कर रही है। जो सभ्यता अपने इतिहास से दूर रहकर विरोधी द्वारा कहे गए मिथ्या को ही सत्य मान ले और उसी अनुसार अपना आचरण करे उसका वास्तव में विध्वंस होना निश्चित ही होता है और यह हो भी रहा है। सनातन धर्म के आध्यात्मिक सिद्धांतों, वैदिक ज्ञान, विज्ञान और उनके गूढ़ रहस्यों के अध्ययन केंद्र की स्थापना होने की जगह हम बाबाओं और ढोंगियों को पूजने लगे हैं। मुझे एक भी स्कूल, कालेज या कोई भी जगह बताइए जहाँ वैदिक गणित का पाठ्यक्रम हो? स्वामीजी का सिद्धांत एकमेव परमेश्वर, ज्ञान से विज्ञान, आत्म से परमात्म की प्राप्ति के मार्ग की ओर ले जाता था और पिछली पीढ़ियों की बहुत सी गलतियों और उनकी प्रश्न न कर पाने की नाकाबिलियत के चलते हम पिछड़ते गए। नतीजा आज वैज्ञानिक सिद्धांतों को समझने के लिए नासा हमारे वेद पढ़ता है लेकिन हम बाबाओं और ढोंगियों की पूजा करके आनंदित रहते हैं।
सोच कर देखिये... कुछ तो गलत हो ही रहा है!!
2 टिप्पणियां:
ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से आप को ६८ वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं |
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "ब्लॉग बुलेटिन की ओर से ६८ वें गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
jankaario k liye shukriya...
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