शनिवार, 2 मार्च 2019

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता?

पिछले लगभग एक साल से लेखन लगभग बंद सा था, आज कुछ बुद्धिजीवी वामपंथियों से अकारण ही बहस कर बैठा जिसमें मात्र मेरी स्वयं की ही ऊर्जा व्यर्थ नष्ट हुई! सोचा ऊर्जा व्यर्थ करने के स्थान पर ब्लॉग पर वापसी की जाए.... बदलते दौर में राजनीतिक ब्लॉगों की एक बाढ़ सी आई है सो ऐसे में राम भरोसे हिन्दुस्तान एक बूँद के समान ही है....

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देश की स्थिति इस समय अजीब सी है, अब अभिव्यक्ति की आज़ादी और राष्ट्रवाद के बीच बहस होती है।  राष्ट्रवाद की भी अपनी परिभाषाएं गढ़ ली जातीं हैं, जिस वामपंथ ने अपने आरम्भ से लेकर आज तक कभी कोई सृजनात्मक कार्य किया ही नहीं हो और सदैव अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन ही किया हो वह भी आज कल टेलीविजन चैनलों पर डब्बों में बैठकर विश्लेषक बन अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोना रोते हैं और रोज रोज नया नया बखेड़ा खड़ा कर देते हैं।

जब हम स्कूल कालेज में थे तब हमारे यहाँ पढाई लिखाई और भविष्य को लेकर अनिश्चितता और मेहनत से ही आगे के मार्ग खुलेंगे वाली स्थिति थी। आजकल के स्कूल कालेज राजनैतिक दलों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न क्यों बन जाते हैं? एक और बात है जो बहुत गंभीर है कि आखिर देश के विपक्षी दलों की स्थिति इतनी कमज़ोर क्यों है कि वह अपने पूर्वाग्रह में इस कदर दुखी हो जाते हैं जब देश की आर्थिक प्रगति की दर चीन से आगे निकल जाती है? आखिर वह दुखी क्यों हो जाता है जब मुद्रा-स्फीति की दर अपने निम्नतम स्तर पर आ जाती है? आखिर उसके पास सरकार को घेरने के लिए कोई और सार्थक और सकारात्मक मुद्दे क्यों नहीं? ऐसे में जब राजनीतिक विरोध अरब और पाकिस्तान के रास्ते से चलकर आतंकवादियों से साठ-गाँठ करने और सरकार को अस्थिर करने के लिए देशद्रोह की स्थिति तक पर चले जाने जैसी स्थिति में क्यों आ जाता है? आखिर कांग्रेस के नेता आईएसआई के नंबर-दो से मिलने क्यों जाते हैं? आखिर क्यों दिल्ली के चुनाव जीतने के लिए रावलपिंडी से केजरीवाल को सीधे निर्देश मिलते हैं? क्यों? देश की राजनीति के इस दौर को यदि बदलते दौर का सोशल मीडिया बेनकाब करने की कोशिश करता है तो उसे कट्टर राष्ट्रवाद कहकर टेलीविजन पर बहस क्यों होती है? आखिर बहस उस केजरीवाल पर क्यों नहीं होती जिसके बयान पडोसी दुश्मन देश के समाचार चैनलों की सुर्खियां बनते हैं? 

मूल रूप से हमारे मीडिया का एक बड़ा वर्ग राष्ट्रविरोधी है और वह आम तौर पर कभी भी ऐसे नक्सल समर्थकों को बेनकाब नहीं करेगा क्योंकि उसकी फंडिंग भी देशद्रोही तत्वों से ही है जो पाकिस्तान के रास्ते या कभी अरब देशों के रास्ते से चलकर तो कभी वेटिकन की गलियों के घूम टहलकर देश को ताक पर रख आता है। 

आखिर ऐसी स्थिति से क्यों न निपटा जाए? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश को ही गालियां देने वाले अगर अठारह साल से बड़े हैं तो उनपर देश द्रोह का मुकदमा चलाया ही जाए। यह लोग खुद को क्रांतिकारी दिखाना चाह रहे हैं लेकिन यह सब हैं लम्पटबाज जो सिर्फ टैक्स भरने वाले मध्यम वर्ग के लोगों पर बोझ हैं। अगर यह देश बदलना चाहते हैं तो मेहरबानी करके किसी सार्थक तरीके से सहयोग करें और यह नौटंकी और राजनीतिक पार्टियों के हाथ की कठपुतली बनना बंद करें।

मगर क्या देश की राष्ट्रवादी सरकार के पास इतना साहस है? मेरे विचार से नहीं क्योंकि हमारा देश अपने मूल स्वभाव से अनुशासनहीन, असभ्य और जातिवादी है। हमारा देश इतना मूर्ख है कि यदि चार सौ बीसी के आरोप में न्यायालय माँ बेटे को जेल की सजा सुनाता है तो भी जनता का एक बड़ा वर्ग इसे सरकार का अत्याचार समझ सहानुभूति वोट दे आएगा! ऐसे में मेरे विचार से तो इच्छाशक्ति होने के बावजूद राजनीतिज्ञ मोदी/शाह की जोड़ी कोई निर्णय न लेने की स्थिति में ही अधिक लाभ देखेगी!


1 टिप्पणी:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

यहाँ कुछ वामपंथी टाईप बुद्धिजीवी भी आपसे सहमत दिखेंगे।