भारत की रूस पॉलिसी क्या होनी चाहिए, भारत की फिलिस्तीन/इज़राइल पॉलिसी क्या होना चाहिए... यह सब अजीब सवाल हैं... पिछले सप्ताह जर्सी सिटी के स्टेशनों के बाहर फ़्री-फिलिस्तीन की तख्तियां लिए लोग दिखे जो शायद येरूसलम शहर में इज़राइल के होने पर अपना प्रदर्शन कर रहे थे। यह एक अजीब बात जरूर है लेकिन भारत की पॉलिसी क्या हो?
सावरकर ने राष्ट्रवाद की व्याख्या के लिए कहा था कि किसी धर्म/ पंथ की आस्था उसके मूल से जुड़ी हुई होती है सो फिलिस्तीन, पाकिस्तान और या कोई मुस्लिम पंथ पर चलने वाले देश किसी एक ही मूल से जुड़े हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि भारत के नागरिकों का भारतीयकरण कभी हो ही न पाया सो आज भी हम बंटे हुए हैं... यदि हमारा भारतीयकरण हुआ होता तो सभ्यताएं घुलमिल गयी होतीं लेकिन जिस पैमाने पर होना चाहिए वैसा हुआ नहीं। इसके नतीजे यह हुए कि आज भी देश के नागरिकों की आस्था देश के बजाय उनके पंथ से ही जुड़ी रही। अब यह पंथ-विशेष पर चलने वाली कौम आजतक किसी और के आदेश/फतवे पर वोट देती आई और बदले में उन राजनीतिक दलों ने उन्हें जानबूझकर गरीब बनाए रखा। मित्रों इस अजीब सी राजनीतिक मजबूरी जनित मजबूती के कारण पंथ-विशेष के विरुद्ध जाने का सामर्थ्य किसी राजनीतिक दल में नहीं!
मित्रों फिलिस्तीन ने लगभग हर अंतराष्ट्रीय मंच पर भारत के खिलाफ वोट दिया है और इज़राइल ने हमेशा समर्थन... और हाँ वोटबैंक पॉलिटिक्स के कारण भारत ने हमेशा इज़राइल का विरोध किया है। खुद से पूछिए कि सत्तर साल बाद इज़राइल जाने वाले मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री क्यों हुए? पहले के प्रधानमंत्रियों की वोटबैंक के अलावा दूसरी और कौन सी मजबूरी थी? ठीक वैसे ही रूस हमेशा भारत के पक्ष में खड़ा रहा है... आज जब बाजार और ग्लोबलाइजेशन के दौर में हम यूरोपियन संघ/अमेरिका के पास खड़े दिखते हैं लेकिन यकीन मानिए यदि कोई विपत्ति आएगी तो मदद के हाथ सिर्फ रूस और इजरायल से ही आएंगे।
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