शनिवार, 9 मार्च 2019

बुद्धिजीवियों का हिंदुत्व विरोध?

रिश्तों में पहले खटास आती थी... अब रिश्तों में मोदी जाते हैं... जी हमारे प्रधानमंत्री मोदीजी... जिनकी फ़ैन फ़ॉलोइंग इतनी ज़्यादा है कि वह देश में नेहरु और वाजपयी से भी अधिक लोकप्रिय हैं.. सिर्फ़ वामपंथी, जातिवादी और फ़तवों पर वोट देने वाली क़ौम ही इस समय मोदी का विरोध कर सकते हैं! हाँ पत्रकारिता बिरादरी में कांग्रेसी और वामपंथी सोच से प्रभावित लुटियन ग्रुप को आज तक यह बात पच नहीं रही कि आख़िर कोई चायवाला प्रधानमंत्री कैसे बन गया... बुद्धिजीवी वर्ग तो ख़ैर अब भी मोदी को अनपढ़ गँवार मानता है... 

कल दो बुद्धिमानों ने मुझे सुनाते हुए यह कहा कि गंगा पिछले चार सालों में ज़्यादा गंदी हो गयी है... ऐसा कोई रिपोर्ट में पढ़ा था उन्होंने.. मुझे नहीं पता उन्हें ज़मीनी सत्यता का कितना भान है क्योंकि हरिद्वार से लेकर बनारस तक गंगा के घाटों की सफ़ाई का जो सफल चरण पिछले चार पाँच साल में दिखा वैसा पहले कभी किसी सरकार ने नहीं किया... स्वच्छता को लेकर भी कुम्भ मेले की तारीफ़ स्वयं युनाइटेड नेशन तक ने की... वैसे कुम्भ मेले में इस बार जहाँ बाइस करोड़ लोगों ने स्नान किया और सभी ने सफ़ाई अभियान की प्रशंसा की... दिल्ली की लुटियन मीडिया में इसे एक आम समाचार के तौर पर लिया गया क्योंकि उसके एजेंडा में मोदी और योगी की प्रशंसा करना नहीं होता... हाँ यदि कुम्भ में किसी भगवाधारी ने उपद्रव मचाया होता तो ज़रूर वह देश विदेश की सुर्ख़ियाँ बनता... कि देखो कैसे मोदी के आदमी ने बवाल मचा दिया... 

यह लुटियन मीडिया हिन्दू विरोधी क्यों है? अंग्रेज़ों से सत्ता हस्तांतरण के बाद नेहरु कांग्रेस ने अपनी ब्राण्ड इमेज बनाने के लिए कई पत्रकारों को पाला पोसा और मज़बूत बनाया... कई कई पीढ़ियों तक कांग्रेसी सत्ता का लाभ पाए पत्रकारों ने वही किया जो सरकारों ने उनसे कराया... बाद में तो ख़ैर स्थिति ख़राब हो गयी और अब पत्रकारिता अपने फ़ंड के लिए अरब के रास्ते, वेटिकन के रास्ते से निकलता हुआ पाकिस्तान की गलियों में घूमता हुआ देश विरोधी मानसिकता लेकर ही देश में दाख़िल होता है... इनका नज़रिया देश को लेकर अजीब सा होता है... इनकी मानसिकता के अनुसार बहुसंख्यक हिंदू का धर्म पालन सांप्रदायिकता है और अन्य वर्गों पर वह हमलावर है, अल्‍पसंख्‍यक की सांप्रदायिकता रक्षात्‍मक है, अत: प्रगतिशील भी है! इसी मानसिकता के कारण घूँघट पिछड़ा हो जाता है और बुरख़ा प्रगतिशीलता की निशानी! इसी मानसिकता के कारण होली पर पानी बहाना पिछड़ेपन की निशानी बन जाता है और बक़रीद प्रगतिशील! इसी मानसिकता के कारण दिवाली, लक्ष्मीपूजा, नवदुर्गा पूजा, शिवरात्रि इत्यादि पिछड़ेपन की निशानी बन जाते हैं और क्रिसमस प्रगतिशीलता की निशानी बन जाता है! हद तो तब हो जाती है जब जेएनयू में देश विरोधी नारेबाज़ी प्रगतिशीलता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो जाती है और वन्देमातरम कहना उग्र राष्ट्रवाद और पिछड़ेपन की निशानी बन जाता है... 

यह सच में एक धर्म युद्ध सरीखा है और इसमें आपको किसी एक मत की तरफ़ ही होना होगा... 


सोच कर देखिए आप किस तरफ़ हैं

3 टिप्‍पणियां:

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/03/2019 की बुलेटिन, " एक कहानी - मानवाधिकार बनाम कुत्ताधिकार “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

विश्वमोहन ने कहा…

यथार्थपरक लेख.

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

हम भी उसी में आते हैं :) अपने आस पास देखते हैं दूर तक नहीं पहुँच पाते हैं।