सोमवार, 21 जनवरी 2013

नेताजी... सत्य क्या है?

२३ जनवरी.... नेताजी का जन्मदिवस.... २३ जनवरी आनें को है और हमारे सामनें फ़िर से वही सवाल आने को हैं। पिछले दिनों अनुज धर जी की पुस्तक मॄत्यु से वापसी और बिगेस्ट कवर-अप को पढा और कई अन-सुलझे सवालों के उत्तर मिले। मैं अपनें ब्लाग के माध्यम से अनुज जी को धन्यवाद देना चाहूंगा की उन्होनें जिस बेबाकी से अपनी राय रखी है उसकी मिसालें बहुत कम हैं। सार्थक और सटीक लेखन अभी जीवित है और हमारी पत्रकारिता अभी भी बहुत मज़बूत है। 




एक प्रश्न मेरे दिमाग में हमेशा कौंधता रहता था की आखिर नेताजी से कांग्रेस इतना डरी हुई क्यों थी... आखिर नेहरू के समर्थन वाली कांग्रेस क्या वाकई हिन्दुस्तान का प्रतिनिधित्व करती थी? 

"१९४४ में अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर से बात करते हुए, महात्मा गाँधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त कहा था। नेताजी का योगदान और प्रभाव इतना बडा था कि कहा जाता हैं कि अगर उस समय नेताजी भारत में उपस्थित रहते, तो शायद भारत एक संघ राष्ट्र बना रहता और भारत का विभाजन न होता। स्वयं गाँधीजी ने इस बात को स्वीकार किया था।"

जय हिन्द का नारा देने वाले नेताजी वाकई में जन जन के नेता थे इसमें किसी तत्कालीन कांग्रेसी को भी शक न होगा। लेकिन उस समय भी कांग्रेस का रवैया वैसा ही था जैसा आज है... सत्ता प्राप्ति... कैसे भी... जब गांधी जी पूर्ण स्वराज के स्थान पर डोमीनियन नेशन की मांग पर समझौता करनें को तैयार थे और सत्ता प्राप्त करनें को आतुर थी। शहीदे-आज़म और नेताजी नें पूर्ण स्वराज के अतिरिक्त किसी और माडल पर बात करनें से इनकार किया। मजबूरन कांग्रेस को झुकना पडा और उसके बाद पूर्ण स्वराज की मांग को आगे अंग्रेजों के साथ टेबल पर रखा गया। लेकिन शहीदे आज़म भगत सिंह की फ़ांसी पर गांधी जी और अंग्रेजो के बीच हुई डील नें नेताजी को झकझोड दिया। भगत सिंह को न बचा पाने पर, नेताजी गाँधीजी और कांग्रेस के तरीकों से बहुत नाराज हो गए। 

१९३८ की फ़रवरी में नेताजी कांग्रेस के अध्यक्ष चुनें गये... वह कांग्रेस के सबसे कम आयू के अध्यक्ष बनें। 


अपनें भाषण में उन्होनें सहिष्णुता, सहनशीलता और अहिंसक आन्दोलन पर जोर दिया और साथ ही साथ यह भी जोडा की कोई भी शान्ति प्रधान देश भी बिना सैन्य शक्ति के अपनी शान्ति व्यवस्था बनाएं नहीं रख सकता। नेताजी के काम करनें के तरीके से महात्मा गान्धी जी खुश नहीं थे और 1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। 1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ती अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसी कोई दुसरी व्यक्ती सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गाँधीजी अब उन्हे अध्यक्षपद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सितारमैय्या को चुना। कविवर्य रविंद्रनाथ ठाकूर ने गाँधीजी को खत लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने की विनंती की। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझोता न हो पाने पर, बहुत सालो के बाद, कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए चुनाव लडा गया। सब समझते थे कि जब महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया हैं, तब वे चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। लेकिन वास्तव में, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिल गए और पट्टाभी सितारमैय्या को 1377 मत मिलें। गाँधीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए।

जब अंग्रेजो ने दूसरे विश्व युद्ध में हिन्दुस्तानी फ़ौजियों के समर्थन के लिए गांधी जी से बात की तो उस समय नेताजी ऐसी किसी भी बात के उलट हिन्दुस्तानियों को अंग्रेजों के खिलाफ़ एक नया मोर्चा खोलनें के लिए और हिन्दुस्तान की आज़ादी के संघर्ष करनें के लिए कृत संकल्प कर चुके थे।   

जापान के पतन के बाद नेताजी के साथ क्या हुआ... सच कहें तो १९४५ की उस घटना की कभी भारत सरकार द्वारा कोई जांच कराई ही नहीं गई । शायद नेताजी को लेकर नेहरू जी और अंग्रेजों के रवैये के कारण ऐसा हुआ होगा। वैसे यह कहना गलत नहीं होगा की नेताजी के तरीके से आन्दोलन के ज़रिए मिलनें वाली आज़ादी एक सच्ची आज़ादी होती। अभी तो है वह हमारे देश वासियों के लिए सत्ता हस्तांरतरण प्रक्रिया मात्र था।  नेताजी होते तो विभाजन न होता, देश आज भी एक संघ होता। आईए देश के विभाजन के समय के कुछ तथ्यों पर गौर फ़रमाएं। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७, जिसके तहत अंग्रेजों नें सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को एक अमली जामा पहनाया । भारत और पाकिस्तान दो टुकडों में बंटनें को तैयार थे। अंग्रेजों का षडयंत्र कामयाब हो चुका था। 

कुछ लोगों के व्यक्तिगत स्वार्थ नें देश के टुकडे करा दिए थे, सत्ता हस्तांतरित हुई... और हमें सदैव लडनें और मरनें के लिए एक दुश्मन मिल गया... जी पाकिस्तान के रूप में। यह कांग्रेस और मुस्लिम लीग पर अंग्रेजों की सबसे शातिर बाज़ी थी। जिसमें विरासत के रूप में हमें पाकिस्तान से दुश्मनी मिली। 

अब आईए नेताजी के दर्शन और नेताजी के प्लान आफ़ एक्शन पर नज़र डाली जाए... नेताजी नें आज़ाद हिन्द फ़ौज को सम्बोधित करते हुए जो कहा वह ज्यों का त्यों पढिए... 
“भारत की आज़ादी की सेना के सैनिकों!...  आज का दिन मेरे जीवन का सबसे गर्व का दिन है। प्रसन्न नियति ने मुझे विश्व के सामने यह घोषणा करने का सुअवसर और सम्मान प्रदान किया है कि भारत की आज़ादी की सेना बन चुकी है। यह सेना आज सिंगापुर की युद्धभूमि पर- जो कि कभी ब्रिटिश साम्राज्य का गढ़ हुआ करता था- तैयार खड़ी है।...
“एक समय लोग सोचते थे कि जिस साम्राज्य में सूर्य नहीं डूबता, वह सदा कायम रहेगा। ऐसी किसी सोच से मैं कभी विचलित नहीं हुआ। इतिहास ने मुझे सिखाया है कि हर साम्राज्य का निश्चित रुप से पतन और ध्वंस होता है। और फिर, मैंने अपनी आँखों से उन शहरों और किलों को देखा है, जो गुजरे जमाने के साम्राज्यों के गढ़ हुआ करते थे, मगर उन्हीं के कब्र बन गये। आज ब्रिटिश साम्राज्य की इस कब्र पर खड़े होकर एक बच्चा भी यह समझ सकता है कि सर्वशक्तिमान ब्रिटिश साम्राज्य अब एक बीती हुई बात है।...  
“1939 में जब फ्राँस ने जर्मनी पर आक्रमण किया, तब अभियान शुरु करते वक्त जर्मन सैनिकों के होंठों से एक ही ललकार निकली- “चलो पेरिस! चलो पेरिस!” जब बहादूर निप्पोन के सैनिकों ने दिसम्बर 1941 में कदम बढ़ाये, तब जो ललकार उनके होंठों से निकली, वह थी- “चलो सिंगापुर! चलो सिंगापुर!” साथियों! मेरे सैनिकों! आईए, हम अपनी ललकार बनायें- “चलो दिल्ली! चलो दिल्ली!”...
“मैं नहीं जानता आज़ादी की इस लड़ाई में हममें से कौन-कौन जीवित बचेगा। लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अन्त में हमलोग जीतेंगे और हमारा काम तबतक खत्म नहीं होता, जब तक कि हमारे जीवित बचे नायक ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दूसरी कब्रगाह- पुरानी दिल्ली के लालकिला में विजय परेड नहीं कर लेते।...
“अपने सम्पूर्ण सामाजिक जीवन में मैंने यही अनुभव किया है कि यूँ तो भारत आज़ादी पाने के लिए हर प्रकार से हकदार है, मगर एक चीज की कमी रह जाती है, और वह है- अपनी एक आज़ादी की सेना। अमेरिका के जॉर्ज वाशिंगटन इसलिए संघर्ष कर सके और आज़ादी पा सके, क्योंकि उनके पास एक सेना थी। गैरीबाल्डी इटली को आज़ाद करा सके, क्योंकि उनके पीछे हथियारबन्द स्वयंसेवक थे। यह आपके लिए अवसर और सम्मान की बात है कि आपलोगों ने सबसे पहले आगे बढ़कर भारत की राष्ट्रीय सेना का गठन किया। ऐसा करके आपलोगों ने आज़ादी के रास्ते की आखिरी बाधा को दूर कर दिया है। आपको प्रसन्न और गर्वित होना चाहिए कि आप ऐसे महान कार्य में अग्रणी, हरावल बने हैं।...
 “जैसा कि मैंने प्रारम्भ में कहा, आज का दिन मेरे जीवन का सबसे गर्व का दिन है। गुलाम लोगों के लिए इससे बड़े गर्व, इससे ऊँचे सम्मान की बात और क्या हो सकती है कि वह आज़ादी की सेना का पहला सिपाही बने। मगर इस सम्मान के साथ बड़ी जिम्मेदारियाँ भी उसी अनुपात में जुड़ी हुई हैं और मुझे इसका गहराई से अहसास है। मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ कि अँधेरे और प्रकाश में, दुःख और खुशी में, कष्ट और विजय में मैं आपके साथ रहूँगा। आज इस वक्त मैं आपको कुछ नहीं दे सकता सिवाय भूख, प्यास, कष्ट, जबरन कूच और मौत के। लेकिन अगर आप जीवन और मृत्यु में मेरा अनुसरण करते हैं, जैसाकि मुझे यकीन है आप करेंगे, मैं आपको विजय और आज़ादी की ओर ले चलूँगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश को आज़ाद देखने के लिए हममें से कौन जीवित बचता है। इतना काफी है कि भारत आज़ाद हो और हम उसे आज़ाद करने के लिए अपना सबकुछ दे दें। ईश्वर हमारी सेना को आशीर्वाद दे और होनेवाली लड़ाई में हमें विजयी बनाये।...
“इन्क्लाब ज़िन्दाबाद!...
“आज़ाद हिन्द ज़िन्दाबाद!”
 


जून 1943 में टोकियो रेडियो से सुभाष बोस ने घोषणा की कि अंग्रेजों से यह आशा करना व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे। हमें स्वयं भारत के भीतर व बाहर से भी स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करना होगा। 21 अक्टूबर 1943 के सुभाष बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपाइन, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी। 

नेताजी ने देश वासियों को टोकियो से सम्बोधित किया

मित्रों, जापान के पतन के साथ आज़ाद हिन्द फ़ौज का भी पतन हो गया। आज़ादी पानें के लिए नेताजी का यह प्रयास असफ़ल रहा क्योंकि कांग्रेस और गांधी का कोई समर्थन न मिला। देश आज़ाद हुआ और हम दो देश बन गये... किसी विचारधारा के कारण नहीं, बल्कि व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण।

आज हम समस्याओं से ग्रसित हैं, भ्रष्टाचार से पीडित हैं.. और न जानें कैसे कैसे नासूर आज भी नाक में दम किए हुए हैं। इनका प्रमुख कारण कांग्रेस की विचारधारा और कुछ न करनें के निर्णय पर अडे रहना और राजनीतिक नफ़े नुकसान का आंकलन कर लेने के बाद ही कोई कार्यवाही करना। यह सब कांग्रेस को अंग्रेजों से विरासत में मिला हुआ ज्ञान है। कांग्रेस आज अंग्रेजों की तरह अडियल रुख अपनाती है और देश की जनता को हर विरोध के लिए सडक पर आना पडता है। यह अपनें आप में एक त्रासदी है जब हमारे संसद में आधे से अधिक लोग किसी न किसी मामले में आरोपी हैं और उनके खिलाफ़ मामलें लम्बित हैं।

नेताजी जिस स्वराज की कल्पना करते थे उसमें उनका मानना था की भारत को आज़ादी के बाद एक अच्छे तानाशाह की ज़रूरत होगी जो भारत के ढांचे में नीतिगत बदलाव करे और उसे मज़बूत करे। उनकी यह सोच आपको किसी साम्यवादी की तरह लगेगी परन्तु भारत और चीन के आज के अन्तर को देखिए आप शायद उनकी इस सोच को भी समझ पाएंगे। हम लोकतंत्र बनें, लेकिन यह लोक तंत्र भीड तंत्र बन गया। जातिगत जनगणना, अस्पर्शयता, छुआ-छूत जैसी समस्याओं से हम आज भी पीडित हैं और शायद हमेशा रहेंगे। ग्राम विकास और आत्मनिर्भरता के लिए नेताजी के माडल पर शायद कभी कोई विचार हुआ ही नहीं। नेहरू हमेशा शहरी करण में विश्वास करते थे और उनके इस माडल में ग्राम अपना महत्व खोते गये। नतीज़तन हमारा विकास शहरों में होता गया और ग्राम विकास यात्रा में पिछडते गये। इसकी परिणिति देखिए की आज कॄषि प्रधान भारत देश की कुल विकास दर में खेती का योगदान केवल सोलह प्रतिशत हैं।  

लेकिन सबसे बडा यक्ष प्रश्न अभी भी वहीं का वहीं है। आखिर नेताजी के साथ हुई सन पैतालीस की घटना में वाकई नेताजी की मॄत्यू हो चुकी थी? या फ़िर कोई ऐसा रहस्य है जो कभी खुला ही नहीं। हमनें और आपनें जो इतिहास पढा वह वही था जो हमारे प्रतिनिधियों नें हम पर थोप दिया।

नेताजी की मृत्यू को दर्शानें वाली जापान सरकार के इस नोट को देखिए



शाहनवाज़ समिति, खोसला आयोग, मुखर्जी आयोग तीन बार जांच कराई जा चुकी है और हर बार तथ्यों को नकारा जाता रहा है। गुमनामी बाबा या भगवान जी पर भारत सरकार कभी कोई स्पष्ट वक्तव्य देती नहीं दिखी। हर बार ढुल मुल तरीके से होनें वाली जांच किसी न किसी राजनीतिक निर्देश से प्रभावित दिखी। मित्रों नेताजी का सच क्या था... आप अनुज धर की पुस्तक मॄत्यू से वापसी और बिगेस्ट कवर अप को पढकर अपनें कुछ अन्य प्रश्नों का हल पा सकते हैं। यकीनन मैनें जबसे इन पुस्तकों को पढा है आन्दोलित भी हूं और आक्रोशित भी। आखिर सच क्या है?  

कुछ चित्रों पर नज़र डालिए... यकीनी तौर पर १९४५ के दावे पर शक की पूरी सूई घुमती है।







क्यों नेताजी को भारत रत्न दिया जाता है और साथ में मरणोपरान्त जोड दिया जाता है। बाद में सुप्रीम कोर्ट के दखल से उसको सुधारा जाता है.. लेकिन सच्चाई बयान करनें से हर कोई बचता है। मित्रों यह स्वतंत्र भारत की सबसे बडी कहानी है जिसके बारे में आज तक कभी कोई कांग्रेसी सरकार नें कोई बयान नहीं दिए... कोई प्रयास नहीं किए गए जिससे देशवासियों को असलियत से रूबरू कराया जाता। आखिर क्यों....

-देव


6 टिप्‍पणियां:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

"जो इतिहास को भुला देते है ... वह उसे दुहराने का अभिशाप भुगतते है !!"

हम सब से यह भूल हुई है ... तो अब इसकी सज़ा तो मिलेगी ही ...

जिन 2 किताबों का आपने शुरू मे जिक्र किया ... प्रयास कीजिये कि आप के अधिक से अधिक मित्र उन दोनों किताबों को पढ़े ...

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को इतिहास मे दफन करने की साजिश के बारे मे सब को पता चलना ही चाहिए !

श्री अनुज धर जी पिछले काफी सालों से 'मिशन नेताजी' के साथ मिल कर सरकार से काफी बार नेताजी से जुड़ी सभी जानकारी को सार्वजनिक करने की मांग कर रहे है ... आइये एक ब्लॉगर होने के नाते ... हम भी उनके साथ इस मुहिम का हिस्सा बन जाएँ !

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ज़िंदाबाद !!
आज़ाद हिन्द ज़िंदाबाद !!
जय हिन्द !!!

शिवम् मिश्रा ने कहा…

वो जो स्वयं विलुप्तता मे चला गया - ब्लॉग बुलेटिन नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को समर्पित आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

HARSHVARDHAN ने कहा…

50 के दशक में पंडित जवाहर लाल नेहरु की बहन श्रीमती पंडित विजयलक्ष्मी और उस समय के भारत के उपराष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्ण सोवियत रूस के दौरे के दौरान सुभाष जी से मिलकर आयें थे।

HARSHVARDHAN ने कहा…

विजयलक्ष्मी जी तो नेताजी से हुई मुलाकात को भारतीय जनता के सामने सार्वजानिक करना चाहती थी। लेकिन कहते है पंडित जवाहर लाल नेहरु ने उन्हें ये सब बताने से रोक दिया था।

Rachana ने कहा…

apne hi desh me paraye ho gaye neta ji .unke bare me aapka likha padh kar achchha laga aur sochne pr bhi majboor huye
rachana

Asha Joglekar ने कहा…

बहुत अच्छा लगा ये लेक पढ कर देश की सार्वभौम स्वंत्रता के आगे भी कुछ लोगों को सत्ता का मोह अधिक था । बडे से बडे महात्माओं के पैर मिट्टी के ही होते हैं ।