भारतीय समाज में और राजनैतिक परिदृश्य में कई ऐसे काल्पनिक शब्द हैं जो आयातित विचारधारा से पोषित और झूठ की बुनियाद पर टिके हुए हैं, उनका वास्तव में किसी भी भाषा से कोई वास्ता नहीं है। उदाहरण के तौर पर दक्षिणपंथी, फांसीवादी जैसे शब्द, यह शब्द किस संस्कृति से आये? क्या कभी किसी ने इसकी खोज खबर की। मेरे विचार से नहीं, यह आयातित मानसिकता और वामपंथी साज़िशों का एक बहुत बड़ा हिस्सा है जिसका पहले हम शिकार बने और फिर धीरे धीरे हम सब उस साज़िश का हिस्सा बन गए। आज आप लगभग हर राजनैतिक चर्चा में इस प्रकार के शब्दों को सुनेंगे, यह उपमा बन गए हैं। हद्द तो तब है जब राष्ट्रवादी भी स्वयं को दक्षिणपंथी कहलवाने में संकोच नहीं करते? आइये इसकी कुछ असलियत की परतें खोजते हैं।
इस राइट और लेफ्ट शब्द को पहली बार फ्रांसीसी क्रांति (१७८९-९९) में उपयोग किया गया था, उस समय फ़्रांसिसी संसद में सत्ता और साम्राज्यवाद के समर्थकों को सत्ता के सिंहासन के दाहिने ओर और फ़्रांसिसी क्रांति के समर्थकों और साम्राज्यवादियों के विरोधियों को बायीं ओर बैठाया गया। प्रारंभिक तौर पर यह दक्षिणपंथी लोग बायीं तरफ के लोगों के विरोधी और सरकारी व्यवस्था, याजकवाद और परंपरावाद के समर्थक थे। इनको परिभाषित करता हुआ पहला फ़्रांसिसी शब्द "la droite" (the right) था। फ़्रांस में १९१५ में पुनः साम्राज्यवाद की स्थापना हुई और दक्षिणपंथियों को "Ultra-royalist" कहा गया। इस शब्दावली को बीसवीं शताब्दी तक किसी और देश ने अपने राजनीतिक परिदृश्य के अनुसार नहीं अपनाया था और यह लेफ्ट और राइट की परिभाषा फ़्रांसिसियों तक सीमित थी। १८३० से लेकर १८८० तक पश्चिम व्यवस्थाओं में कई बदलाव हुए, पूँजीवाद के खिलाफ कई आवाज़ें बुलंद हुई, और इस पूंजीवादियों के खिलाफ हुई इस सामाजिक और आर्थिक हलचल के बीच पहली बार ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी ने पूँजीवाद का समर्थन किया था, वामपंथियों की नज़र में यह घनघोर अपराध था और कंजरवेटिव पार्टी पर दक्षिणपंथी होने का ठप्पा लग गया था। अब भले यह दक्षिणपंथी शब्द साम्राज्यवादी सत्ता के समर्थन से बनी थी, लेकिन इसमें बाद में कई अन्य विचारधाराओं जैसे प्रचंड, कट्टर राष्ट्रवाद, फांसीवाद, धार्मिक कट्टरपंथियों जैसे कई विचार समाहित हो गए। सो संक्षेप में कहें तो फ़्रांस की संसद में सम्राट को हटाकर गणतंत्र लाना चाहने वाले और धर्मनिरपेक्षता चाहने वाले बाई तरफ़ बैठते थे और पूँजीवाद से सम्बंधित विचारधाराओं, साम्राज्यवाद और पूंजीवादियों के समर्थक दाईं राजनीति के अंग कहलाये। ऑक्सफ़ोर्ड की राजनीति शास्त्र की परिभाषा के अनुसार दक्षिणपंथी विचारधारा, समाजवाद और सामाजिक लोकतंत्र के खिलाफ है और यह पूरी तरह से परंपरावादी, धार्मिक कट्टरपंथी और फांसीवादी है। अब इन शब्दावलियों में बहुत विरोधाभास थे सो रॉजर एत्तवेल्ल और नील ओसुल्वियन जैसे ब्रिटिश राजनीतिक विशेषज्ञों ने इस दक्षिणपंथी को और पांच भागों में विभक्त किया है, "प्रतिक्रियावादी", "मध्यम", "उग्र", "चरम" और "नवीन"। "प्रतिक्रियावादी" वह लोग हैं जो भूतकाल को देखते हुए और धार्मिक, सत्तावादी मानसिकता को बढ़ावा दें। माध्यम मार्गी दक्षिणपंथी हर प्रकार के बदलाव के लिए तैयार और बहुत लचीला है यह सत्ता और साम्राज्यवाद को भी स्वीकार करता है और यह किसी भी प्रकार की उग्रता और चरमपंथ को स्वीकार नहीं करता है। उग्र वाद और चरमपंथ के बारे में कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है और रेडिकल राइट या फिर उग्र दक्षिणपंथी जैसे शब्द द्वितीय विश्व युद्ध के बाद समझे और जोड़े गए। बहरहाल ब्रिटेन के बाद अमेरिका भी इस लेफ्ट और राइट की राजनीति से अछूता न रह सका और फिर इसके बाद कई समाजशास्त्रियों ने बहुत कुछ और जोड़ दिया। सेंटर लेफ्ट, फार लेफ्ट और फार राइट जैसे शब्द इसमें जोड़े गए, और यह सभी शब्द उस समय की राजनैतिक दशा दिशा में समझे और समझाए गए। अमेरिका का गृह मंत्रालय दक्षिणपंथी मानसिकता को धृणा और उग्रवादी के समान देखता है और उन्होंने इसी धार्मिक उन्माद की श्रेणी में डालकर नियंत्रण के लिए विशेष कानून भी बनाये हैं।
आप इस जानकारी के आधार पर पश्चिम की मानसिकता के आधार पर दक्षिणपंथ की परिभाषा समझ सकते हैं। भारत में दक्षिणपंथ और फांसीवादी जैसे शब्दों का कोई अर्थ ही नहीं था क्योंकि इनका भारतीय लोकतंत्र और राजनैतिक, सामाजिक संरचना से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। ये भ्रम और झूठ के बीच जिन्दा रखी गयीं वे शब्दावलियां हैं जिनको आयातित वामपंथी विचारधारा द्वारा भारतीय समाज एवं राजनीति में जहर की तरह कूट-कूट कर भर दिया गया है। जो लेफ्ट और राइट यूरोप में दो मानसिकताओं के बीच के संघर्ष से पैदा हुई हो उसे भारतीय परिदृश्य में कैसे रखा जा सकता है? दरअसल यह एक बहुत गहरी साज़िश है, वामपंथियों ने बड़ी ही कुटिलता से अपने सभी विरोधियों को साहित्य में दक्षिणपंथी लिखना शुरू किया और शब्दावलियों का जिनका भारत की संस्कृति से कोई लेना देना ही न था, फिर भी उन्होंने प्रचारित और प्रसारित किया। भ्रम का और झूठ का यह मायाजाल इतनी आसानी से फ़ैल गया कि स्वयं भारतवासी भी भ्रमित हो गए। भारत के राष्ट्रवादियों ने कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि यह दक्षिणपंथी शब्द दरअसल फ़्रांस की राजसत्ता के पक्षधर लोगों को सत्ता के दक्षिण में बैठाये जाने के कारण उत्पन्न हुआ है और इसका भारत से कोई सम्बन्ध है ही नहीं।
क्या भारत का कोई भी तथाकथित दक्षिण पंथी राजनैतिक दल राजसत्ता का हिमायती होता दीखता है? वामपंथी विचारकों ने जिन दलों को दक्षिणपंथी होने का आरोप मढ़ा है उनमे से कितने हैं जो साम्राज्यवाद के समर्थक हैं? क्या इस तथाकथित दक्षिणपंथी मानसिकता ने कभी भी लोकतान्त्रिक परम्पराओं को नकारा है? मित्रों दुःख इस बात का है कि भारतीय राष्ट्रवाद आज वामपंथी विचारकों के बौद्धिक फरेब और भ्रमजाल में बुरी तरह से फंस चुका है और उसे खुद भी सही और गलत की समझ नहीं रही है। भारतीय राष्ट्रवाद एक उदारवादी और सांस्कृतिक परम्पराओं और वेदों, पुराणों और युगों युगों से चलती आ रही धार्मिक परम्पराओं और "वसुधैव कुटुम्बकम" की मान्यता वाला राष्ट्रवाद है। उसका किसी भी प्रकार के उग्रवाद या चरमपंथ से कोई लेना देना नहीं है। इन्ही शब्दों के मकड़जाल ने भारत के राष्ट्रवादी, उदार और हिंदूवादी धार्मिक संगठनों को पश्चिम की नज़र में चरमपंथी बता दिया है। अब पश्चिमी देशों का नजरिया दक्षिणपंथ को लेकर उनके अपने अनुभव के आधार पर है, इन्हे भारत की संस्कृति और पौराणिक मान्यताओं से क्या लेना देना? यही कारण है कि भारत में हिंदुत्ववादी तत्वों के समर्थन में कोई आवाज़ पश्चिम देशों से नहीं आती।
कुल मिलकर मैं यही कहना चाहता हूँ कि भारत की राजनीतिक और सामाजिक संरचना में दक्षिणपंथ जैसा कोई शब्द कहीं से भी उचित नहीं है और यह सिर्फ और सिर्फ वामपंथी कुतर्क और बहुसंख्यक उदार राष्ट्रवादियों की नासमझी की देन है।
2 टिप्पणियां:
रोचक विवेचना के लिए आभार।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, अमर शहीद संदीप उन्नीकृष्णन का ७ वां बलिदान दिवस , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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