मैंने अक्सर हाई कोर्ट को बकवास फ़ैसला देते हुए देखा है, सत्र न्यायालय से दोषी को उस राज्य के हाई कोर्ट से निर्दोष साबित होते और फिर सर्वोच्च न्यायालय के सत्र न्यायालय के साक्ष्यों पर संज्ञान लेते और जाँच के बाद आरोपी को दोषी सिद्ध होते हुए भी देखा है। कई मामले ऐसे ही हुए हैं। सलमान खान का मामला इसका ताज़ा उदाहरण है, उच्च न्यायालय के जज का साक्ष्य, सबूत, रवींद्र पटेल के बयान इत्यादि पर कोई संज्ञान न लेना और इतनी जल्दबाज़ी में फ़ैसला सुना देना वाक़ई में ग़लती है। सलमान अगर बेगुनाह होते तो १३ साल बाद हम यह बात नहीं कर रहे होते की उस दिन गाड़ी कौन चला रहा था। निहसंदेह उस दिन गाड़ी सलमान ही चला रहे थे और उनको बचाने के लिए जो सबूत मिटाए गए, लोगों को बिना किसी मुआवज़ा मरने को छोड़ दिया गया उसका भी निबटान ज़रूरी है। वैसे हाई कोर्ट का इस प्रकार के बेवक़ूफ़ाना फ़ैसला देने की आदत इसलिए भी हो सकती है क्योंकि उन्हें पता है कि कोई न कोई पक्ष तो ऊपर सर्वोच्च न्यायालय जाएगा ही सो जो भी फ़ैसला दो क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन उसकी ऐसी जल्दबाज़ी से लोगों के मन में उच्च न्यायालय के प्रति विश्वास कम हुआ है। हम भारत में न्यायपालिका के भ्रष्टाचार की बात नहीं करते क्योंकि उसे पवित्र माना जाता है, लेकिन यहाँ न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया ही ग़लत है तो उसका क्या? जजों के भ्रष्टाचार की कोई बात करता है? साक्ष्यों को तोड़ना, मिटा देना या फिर उनका अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने वाले वकीलों का क्या?
कोई पुलिसवाला अपनी जान पर खेलकर किसी उग्रवादी को पकड़ता है और उस उग्रवादी को बचाने के लिए वकीलों की फ़ौज खड़ी हो जाती है, क्या किसी ने भी इन लोगों की जाँच की बात की, कि आख़िर क्या स्वार्थ था इन लोगों का जो इन्होंने आतंकी की सज़ा माफ़ी के लिए आधी रात में सुप्रीम कोर्ट खुलवा दिया? देश का दुर्भाग्य है जो न्यायमूर्ति भ्रष्ट हैं और ऐसे वकीलों से हमारी अदालतें भरी हैं।
कोई अगर इस लेख पर आपत्ति करे तो उन्हें जस्टिस काटजू सरीखे लोगों को देख लेना चाहिए। देशद्रोही न कहूँ तो क्या कहूँ इनको आप ही कहिए?
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