सोमवार, 4 जुलाई 2016

उत्तर प्रदेश और भाजपा....

वर्ष 1992 उत्तर प्रदेश का बच्चा बच्चा सड़क पर... जय श्री राम के नारे और जयघोष से हर शहर, गली, मोहल्ला गुंजायमान। संघ और भाजपा के कार्यकर्ता घर घर राम की अलख जलाने और भाजपा के प्रचार में मगन.. एक आम आदमी का बयान, अगर हिन्दू सवर्णों के लिए कोई पार्टी है तो भाजपा ही है। नतीजा, कल्याण सिंह पूर्ण बहुमत से सत्ता में। भाजपा के लिए उस समय उत्तर प्रदेश की विजय 2014 में मोदी की विजय से कहीं भी कम नहीं थी। लेकिन भाजपा ने उस दौरान कुछ अजीब से काम कर दिए, पहला नक़ल विरोधी अध्यादेश, दूसरा पुराने समाजवादी नियमों को यूँ ही छोड़ देना। अयोध्या में मस्जिद का ढांचा गिराया, सरकार गिरी, देश भर में बवाल हुआ उसकी प्रतिक्रिया में न जाने क्या क्या हुआ मैं उसको याद नहीं करना चाहता लेकिन भारतीय राजनीति में किसी मुद्दे को घर घर जाकर इस प्रकार प्रचार करना अभूतपूर्व था और सेल्स की टर्मिनॉलॉजी में कहूँ तो राजनीति में डोर टू डोर सेलिंग का इससे बड़ा उदाहरण मुझे नहीं दीखता। बहरहाल सरकार गिरी, राष्ट्रपति शासन लगा और फिर जब चुनाव हुए तब राम लहर के कारण सरकार वापसी जैसी स्थिति कागज़ पर दिख जरूर रही थी लेकिन तभी ज्योति बसु से प्रेरणा पाकर समाजवादियों ने एम-वाय समीकरण खेला। इस एम-वाय (मुस्लिम यादव) वोट बैंक की राजनीति ने जमीनी स्तर पर ओबीसी वोट बैंक, मुस्लिम धर्म गुरु के फतवे और वोट बैंक को बनाने के लिए एक अलग ही प्रयास शुरू किया। जिस समय मुलायम मुस्लिम और यादव को रिझाने में लगे थे, भाजपा अपने मूल हिन्दू वोटर को जोड़ पाने में असफल हो रही थी। नक़ल विरोधी अध्यादेश हटाने का वायदा और मुस्लिम धर्म गुरुओं से समझौते और मिले फतवे के बाद पड़े एकतरफा मुस्लिम वोट और दूसरी तरफ भाजपा के रवैये से दुखी हिन्दू वोटर ... नतीजा मुलायम सिंह पूर्ण बहुमत से मुख्यमंत्री बन गए। सत्ता में बने रहने के लिए मुलायम सिंह ने उस एम-वाय को याद रखा और मुस्लिम वोट बैंक की खुलकर राजनीति की। बाद में किसी भी प्रकार से वोट बैंक वापस पाने की भाजपा की जुगाड़ राजनीति, मायावती से गठबंधन करना... यह सब अजीब सी हरकते देखकर भाजपा का मूल, सवर्ण हिन्दू वोटर पूरी तरह से भाजपा से दूर हो गया। सन नब्बे के उत्तरार्ध की कांग्रेस सरीखा हाल भाजपा का उत्तर प्रदेश में हो गया। न संगठन बचा, न लोग, न कार्यकर्ता जो कुछ बचे भी वह भी आपसी गुटबाजी का शिकार होकर नाकारे हो गए। 

लोकतंत्र में अपने कार्यकर्ता और वोटबैंक को नज़रअंदाज करना कहीं से भी तर्क संगत नहीं होता और इस बात को मुलायम सिंह भी समझते हैं, मायावती भी समझती हैं कल की नौसिखिया आआपा भी समझ गयी और एक यही बात है जिसमे भाजपा ज़बरदस्त तरीके से फिसड्डी है। यह पैराशूट नेता लाते हैं और अपने दल के कार्यकर्ता पर ही भरोसा नहीं करते। तकलीफ यही है कि अब इनकी इसी हरकत के कारण कांग्रेस मुक्त भारत की जगह कांग्रेस युक्त भाजपा सरीखी स्थिति हो रही है। 

भाजपा हर उस राज्य में जबरदस्त प्रदर्शन कर रही है जहाँ उसका सामना सिर्फ कांग्रेस से है क्योंकि अब देश ने कांग्रेस को पूरी तरह से नकार दिया है और कांग्रेस के एक मात्र विकल्प भाजपा को विजय मिल रही है। यह स्थिति वहाँ बदल जाती है जहाँ एक भी क्षेत्रीय दल हैं, क्योंकि यहाँ भाजपा को न सिर्फ हार मिलती है बल्कि सूपड़ा साफ़ होने सरीखी स्थिति बन जाती है। दिल्ली, बिहार इसके नायाब उदाहरण हैं और यकीन मानिए स्थिति उत्तर प्रदेश में भी ऐसी ही होगी।  

जब तक भाजपा अपने जमीनी कार्यकर्ता और अपने वोटर से दूर रहेगी, हारती रहेगी। अपना वोट बैंक बचाने के लिए दादरी सरीखे एक मामले पर दो सदस्य वाला दल भी संसद बंद करा देता है और जब डॉक्टर नारंग जैसा मामला होता है, किसी हिन्दू धर्म स्थल पर तोड़-फोड़ होती है तब आखिर क्यों भाजपा के दो सौ चौरासी सांसद चुप रहते हैं? आखिर उस राज्य की सरकार के खिलाफ कार्यवाही, जुलुस, तोड़-फोड़, प्रदर्शन क्यों नहीं ? 

2014 में कांग्रेस के प्रति क्रोध और मोदी की अपार परिश्रम और ऊर्जा से जीत मिली लेकिन यह रोज रोज नहीं होगा। भारत में वही सफल होगा जो वोट बैंक की राजनीति करेगा, यह काम मुलायम, ममता, माया, जयललिता और लालू तो जानते ही थे अब तो आपिये भी समझ गए...   हाँ अगर जनता स्वाभिमानी होती, बहुसंख्यक हिन्दू इतना बेवकूफ न होता तो स्थिति अलग होती लेकिन जनता का बंटा हुआ होना और उसपर भाजपा का ऐसा रवैया.... बहुत मुश्किल है। चलिए जैसा विकास दिल्ली वालों को मिला, जैसा समाजवाद बिहार में आया ठीक वैसा ही उत्तर प्रदेश में भी जल्दी ही आएगा।  

1 टिप्पणी:

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

आज की ब्लॉग बुलेटिन मोमबत्ती की याद तभी आती है,जब अंधकार होता है मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ...

सादर आभार !