मंगलवार, 8 नवंबर 2016
अमेरिकी चुनाव के पहले का एक विश्लेषण
रविवार, 14 अगस्त 2016
क्रिकेट बनाम ओलम्पिक
शुक्रवार, 22 जुलाई 2016
भाजपा का आत्मघाती रवैया..
भाजपा उत्तर प्रदेश में नहीं जीत सकती, इसलिए नहीं कि उसके पास नेता नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि उसके पास अपने कार्यकर्ता की देखभाल करने और पार्टी के कार्यकर्ताओं को अपना समझने की ही समझ नहीं है। अभी नया हादसा देखिये, दयाशंकर ने जो भी कहा हो उसके बाद दयाशंकर के परिवार के प्रति भाजपा का उदासीन रवैया निंदनीय है। एक कार्यकर्ता अपनी ज़िन्दगी पार्टी को दे देता है, लेकिन सत्ता की मलाई मिल जाने पर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कांग्रेस सरीखा हो रहा है। मोदी के सिपहसालार अपनी ही वोट बैंक की अनदेखी कर रहे हैं और कार्यकर्ता हाशिये पर जा रहा है।
हाँ एक और बात, दयाशंकर ने जो कहा वो तो जाने दीजिए लेकिन पैसा लेकर सीट बांटने वाले के लिए क्या शब्द इस्तेमाल होने चाहिए? उसपर मायावती की पार्टी के कार्यकर्ता और वोटबैंक? लेकिन यह वोट बैंक इतना संगठित है कि मायावती जो बिना किसी एजेंडे(बसपा का कोई एजेंडा है क्या?) के दल की नेता और थाली के बैंगन सरीखी स्थिति होने पर भी एकदम तैयार हैं चुनाव के लिए।
उधर भाजपा समझ ही नहीं रही कि उत्तर प्रदेश को जीतने के लिए सड़क पर उतरना होगा, यह अपने आम कार्यकर्ता के परिवार को तो संभाल नहीं पा रही... उत्तर प्रदेश क्या ख़ाक संभालेगी...
बुधवार, 20 जुलाई 2016
साईं ट्रस्ट की दुकानदारी...
मैं किसी भी भक्ति या विचारधारा के समर्थन के खिलाफ नहीं लेकिन अंध-भक्ति के खिलाफ ज़रूर हूँ। सनातन धर्म को चोट पहुँचाने वाले कोई और नहीं, स्वयं हिन्दू धर्म के बुद्धिजीवी लोग ही हैं जिन्होंने न जाने किस स्वार्थ से पीड़ित होकर सनातन धर्म को घनघोर क्षति पहुंचाई है। यहाँ बात शिरडी के साईं बाबा के चेलों की व्यापारिक सोच को लेकर है जिसने सनातन धर्म को इस कदर चोट पहुंचाई की स्वयं भोले हिन्दू धर्म के लोग भी इसको समझ नहीं पाए। आज जब मैंने जर्सी सिटी में भी साईं की पालकी के बाद सत्यनारायण मंदिर में पूजा का कार्यक्रम देखा तो अजीब लगा क्योंकि साईं बाबा का भगवान विष्णु की पूजा से क्या लेना देना?
साईं को साईं रहने दीजिये और भगवान विष्णु स्वरुप और भागवत को अपनी जगह रहने दीजिये। आधुनिकता के चक्कर में पहले ही पिछली पीढ़ियों ने धर्म को बहुत भ्रष्ट किया है और ऊपर से अगर सब कुछ छोड़ते चले जायेंगे तो फिर अगली पीढ़ी को पकड़ने के लिए रह क्या जाएगा? अपने धर्म को समझने का प्रयास तो कीजिये, साईं बाबा की पूजा करनी है तो कीजिये लेकिन यदि आप ऐसा अपने धर्म और दर्शन को भूलने की कीमत पर करते हैं तो फिर यह आपकी भयंकर भूल है।
मुझे तकलीफ इस बात से है कि इन्होने एक बड़े व्यापारी के समान इन्होंने साजिशन प्लान के तहत अपनी फ्रेंचाइजी बेचीं और हिंदुओं की सहिष्णुता का भरपूर लाभ उठाया और इस हद तक भ्रष्ट कर दिया जिससे आज कई एक हिन्दू समाज के लोग साईं को भगवान मान राम और कृष्ण के समतुल्य साईं उनकी पूजा करने लगे। भोले हिन्दू पहले इस साज़िश का शिकार बने और अब इसी साजिश का हिस्सा हैं।
अगर आपको बात न समझ में आ रही हो तो कुछेक बातों पर ध्यान दीजिए:
- इन्होंने वैदिक पद्धितियों की आड़ लेकर साईं की पूजा के कर्मकाण्ड तय किये और साईं को भगवान के रूप में स्थापित करने का पूरा प्रयास किया
- साईं तो सर्व धर्म समभाव के हितकारी थे तो उनकी कोई मूर्ति या कोई प्रतीक किसी मस्ज़िद या गिरिजाघर में क्यों नहीं? यदि है तो बताने का कष्ट कीजिये?
- वैदिक रीति रिवाज़ से पूजा करने के लिए सनातन वैदिक मंत्रों को ही तोड़ मोड़ कर उसमे साईं नाम को इस प्रकार पिरोया जैसे मानो स्वयं वेदव्यास या वाल्मीकि या स्वयं ब्रम्हा ही यह मन्त्र लिख गए हों
- हर सनातन धर्म के मंदिर में फ्रेंचाइजी दे दी गयी और बड़ा मुनाफा बटोर लिया गया
- मुझे बताइये कि साईं को किसी भी साहित्य में साईं अल्लाह या साईं यीशु कहा गया? नहीं क्योंकि साईं ट्रस्ट जानता है हिन्दू धर्म में मूर्ख ज्यादा हैं सो दूकान यहाँ अच्छे से चलेगी। अगर मुस्लिम या ईसाईयों को छुआ तो एक ही दिन में दूकान बंद करा देंगे
सोमवार, 4 जुलाई 2016
उत्तर प्रदेश और भाजपा....
बुधवार, 22 जून 2016
यूरोप का नया संकट यूरोपियन संघ...
शनिवार, 11 जून 2016
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार, अमेरिका चीन और हम
"आइये जानते हैं चीन और भारत एक ही समय तथाकथित स्वतन्त्र हुए लेकिन फिर भी चीन भारत से लगभग तीन गुनी बड़ी अर्थव्यवस्था कैसे बन गयी। शायद आर्थिक सुधार की प्रक्रिया एक वामपंथी देश ने एक लोकतान्त्रिक देश से पहले समझ ली और विश्व के मिजाज को भांपते हुए सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में ही आर्थिक सुधारों की नींव रख दी। चीन न सिर्फ विश्व के लिए पहली फैक्ट्री बन बैठा बल्कि उसने अपनी आर्थिक नीति को इस तरह से बदला कि अमेरिका जैसा देश भी अपने देश का कच्चा माल चीन भेज कर वहां से तैयार माल खरीदने के लिए मजबूर हो गया। एक ताला-चाभी से लेकर हैलीकॉप्टर के पुर्जे तक सब कुछ बनाने के लिए चीन ने अपना बाज़ार खोल दिया और स्थिति को इस कगार पर पहुंचा दिया कि अब चीन की सरकार जब अपने ब्याज दर को निर्धारित करती है तब अमेरिका का शेयर बाज़ार हिलने लगता है। एक समय के मित्र देश अब प्रतिद्वंदी बन रहे हैं और जो स्थिति एक समय पहले अमेरिका और सोवियत संघ की थी कुछ वैसी ही अब अमेरिका और चीन की हो रही है। मित्रों शीत युद्ध के दौरान विश्व में शक्ति के दो केंद्र थे, अमेरिका और सोवियत संघ। सभी छोटे देश इनमे से किसी एक के ही मित्र देश बने रह सकते थे। जब भारत और सोवियत संघ में बीच मित्रता जगजाहिर हुई तब पाकिस्तान ने अमेरिका से मित्रता के लिए पहल की। सोवियत संघ के खिलाफ मोर्चे की स्थिति में लिए अमेरिका को भी एक दोस्त की तलाश थी और इसी कारण से अमेरिका ने पाकिस्तान को अस्त्र दिए, शस्त्र दिए, आर्थिक सहायताएं दी। अमेरिका को साम्यवाद के विरुद्ध मोर्चा बनाने के लिए जिस प्रकार के सहभागी की ज़रूरत थी उसके लिए पाकिस्तान पूरी तरह से उपयुक्त था। उन्नीस सौ पैंसठ के युद्ध में पाकिस्तान को भारत के खिलाफ शुरूआती बढ़त मिली थी और अमेरिकी हथियारों से सुसज्जित पाकिस्तानी सेना ने ऑपरेशन द्वारिका में भयंकर तबाही मचाकर भारत को बैकफुट पर धकेल दिया था। वह तो शास्त्रीजी जैसा नेतृत्व और विश्व में सबसे साहसिक सैन्य बल होने के कारण भारत ने स्थिति को पलटकर पाकिस्तान और अमेरिका को धूल चटा दी थी। सन बहत्तर की लड़ाई में जब इंदिरा गांधी जैसी मजबूत इरादों वाली महिला ने पाकिस्तान को पूरी तरह कन्टेन करने का मन बना लिया था तब इंदिरा कैबिनेट के ही किसी विश्वासपात्र व्यक्ति की गद्दारी और सीआईए को सूचना लीक करने के कारण ही स्थिति बदल गयी थी। अमेरिका ने अपने मित्र पाकिस्तान को बचाने के लिए अपनी नौसेना का एक बेड़ा बंगाल की खाड़ी में रवाना किया था। सोवियत संघ ने सहायता का वायदा किया था लेकिन भारत अमेरिका से सीधी टक्कर लेने की स्थिति में नहीं था और इसी कारण लाख लोगों के आत्मसमर्पण करने के बाद भी उन्हें छोड़ा गया और भारत ने पश्चिमी पाकिस्तान से सेना वापस बुला ली।"
मित्रों कहने का सीधा अर्थ यह ही है कि अमेरिका भारत का कभी भी मित्र नहीं रहा है। यह सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए विश्व भर में समस्याएं खड़ी करता आया है। आज विश्व में विकाशशील देश बड़े बाज़ार बनकर उभरे हैं और इन देशों में बढ़ता हुआ समाज अपने आप में अमेरिका सरीखे देशों के लिए कमाई का एक बड़ा जरिया बनकर उभरे हैं। भारत को भी रोजगार चाहिए और यह निवेश के जरिये ही हो सकता है। नेहरू के औद्योगीकरण के मॉडल की दिशाहीन नीति को जब नरसिम्हाराव ने ठीक दिशा दी और फिर उसे ही अटल बिहारी और मनमोहन सरकार ने आगे बढ़ाया, जब भारत की विकास दर 11.4 प्रतिशत हुई तब भारत को विश्व ने गम्भीरता से लेना शुरू किया। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई कांग्रेस सरकार के समय में भारत और भारत के बारे में नजरिया बहुत ही नकारात्मक होता गया, जो क्षवि बन रही थी वह बिखरने लगी। सरकार में ही सत्ता के कई समानांतर केंद्र होते गए और लगभग हर रेटिंग एजेंसी ने भारत को नकारात्मक श्रेणी में डाल दिया। रोज नए भ्रष्टाचार के बाद 2014 लोकसभा चुनाव के बाद मोदी प्रधानमन्त्री बने तब उन्होंने सबसे पहले इसी परसेप्शन को ठीक करने की ज़िम्मेदारी उठाई। नकारात्मकता को दूर करते हुए उन्होंने भारत के सकारात्मक पहलु को उठाना शुरू किया, विश्व में दौरे किये और निवेश के लिए भारत को बाकायदा एक बाज़ार की तरह प्रस्तुत किया। इसका नतीजा महज़ दो वर्ष में भारत ने अमेरिका और चीन को पीछे छोड़कर निवेश के लिए सबसे आगे निकल गया। प्रगति के मार्ग पर विकासदर एक आंकड़ा भर नहीं है यह विश्व भर के लिए प्रगति का एक सन्देश होता है और यह बाहरी निवेश के लिए देश की क्षवि को बनाने के लिए निर्णायक हो सकता है।
बहरहाल अब भारत विश्व के बड़े देशों के लिए एक बाज़ार है, आज अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत के बढ़ते कदम से विश्व अचरज में है और अब शिक्षा क्षेत्र से लेकर विज्ञान, सूचना प्रौद्योगिकी तक पर जगह भारतीयों ने अपना डंका बजाया है। मोदी सरकार ने पिछले दो वर्षों में वैश्विक पटल पर कूटनीति का एक नया दौर शुरू किया और कांग्रेस के नकारात्मक विदेश नीति से इतर एक नए दौर का सूत्रपात किया। इस दौर में भारत ने हिन्द महासागर में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए सेशेल्स और मालदीव्स में केंद्र, ईरान में बंदरगाह की स्थापना ताकि पाकिस्तान को बिल्कुल अलग-थलग किया जा सके। अमेरिका भी भारत के सुर में सुर मिला रहा है और पहली बार पश्चिम पाकिस्तान के नहीं बल्कि भारत के पक्ष में खड़ा दिख रहा है।
मोदी के प्रयास भारत की कूटनीतिक सफलता के लिए बेहद जरूरी हैं और वह इसे बखूबी समझते भी हैं। देश का विपक्ष भले कुछ भी कहे लेकिन सत्य यही है कि आज अमेरिका ने भी भारत-अमेरिका नीति को मोदी-सिद्धांत कहकर सम्मान दिया है। भले बांग्लादेश से सीमा विवाद हो या पाकिस्तान को लेकर नीति हो हर मोर्चे पर मोदी पिछली सरकारों से कहीं बेहतर काम करते दिख रहे हैं। अमेरिका में रहकर भारत के बारे में पिछले दो सालों में बदले रवैये को मैंने स्वयं महसूस किया है सो इतना कह सकता हूँ कि विदेश नीति को लेकर मोदी से बेहतर फिलहाल भारत में तो कोई नहीं है।
सच कहूं तो असली मायने में विश्व बदल रहा है और विश्व की सोच बदल रही है, इस बदलते हुए समय में भारत को रूढ़िवादी सोच से निकलकर आगे बढ़ना होगा, पूरे देश को सम्भालना है और एक नयी दिशा देनी है। सरकार कोई भी हो, यदि हर सामान्य से सामान्य भारतीय भी अपनी ज़िम्मेदारी समझे तो भी देश की तरक्की होती रहेगी। एक सामान्य नागरिक की तरह हमें अतिवाद से बचते हुए सकारात्मक रवैया बनाए रखना चाहिए।
रविवार, 22 मई 2016
भारत की "मौकापरस्त" विदेश-नीति
बुधवार, 13 अप्रैल 2016
वोटबैंक और सरकारें..
राजनीति में कई बार ऐसी स्थिति आ जाती है जब निर्णय लेने में दिक्कत होती है। यह एक दुर्गम स्थिति होती है और जो कोई शासक सही समय पर सही निर्णय ले पाता है उसकी वैसी ही ऐतेहासिक विवेचना होती है। उदाहरण के लिए उन्नीस सौ इकहत्तर की लड़ाई में इंदिरा गाँधी के फैसलों का हम सब गर्व करते हैं, शास्त्रीजी का "जय जवान और जय किसान" हमारे लिए मन्त्र बने और देश इनके पीछे खड़ा हुआ। जब खाने को अन्न नहीं है तब भूखे रहकर स्वाबलंबन का पाठ पढ़ाने वाले शास्त्रीजी देश के महानतम प्रधानमन्त्री हैं।
हमने ठीक इसके इतर वोट बैंक की राजनीति को चमकाने वाले नेहरू और राजीव गांधी को भी देखा है और मनमोहन सरीखे पढ़े लिखे बुद्धिजीवी प्रधानमन्त्री को भी देखा है। इन तीनों में समानता यह थी कि यह भारत की जमीनी हकीकत से अनजान थे और यह तीनों ही कमज़ोर और नाजुक मौकों पर सोच विचारकर सर्वसम्मति से "कोई निर्णय न लेने" के निर्णय लेते थे। आज माओवाद चरम पर है, वामपंथी आतंकवाद किसी घुन की तरह फैला हुआ है, इसे पालने वाली कांग्रेस फिर से इसको मोदी सरकार को अस्थिर करने में करना चाहती है और यह इनकी हरकतों से दिख रहा है। किसी को अगर समझना हो तो आप सिर्फ इन तीन चार मुद्दों पर ध्यान दीजिये:
नेपाल जैसे देश के साथ भी भारत की किसी जल संधि का न होना
बांग्लादेश के साथ सीमा विवाद
पाकिस्तान और चीन के साथ विवाद
कश्मीर की समस्या
लगभग इन सभी समस्याओं की जड़ नेहरू ही हैं। कश्मीर की धारा 370 नेहरू की नाकामी का सबसे बड़ा प्रमाण पत्र है। देश की जमीनी हकीकत से अनजान, राष्ट्रवाद के सिद्धांत और विचार से कोसों दूर कोई व्यभिचारी, सत्तालोलुप व्यक्ति जब सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर जा बैठे तब स्थिति ऐसी ही होती है। इतिहास को चाहे जितना भी बदलने का प्रयास हो लेकिन नेहरू देश के सबसे बड़े अपराधी हैं और रहेंगे। चोर लुटेरे का खानदान आज भी लूट खसोट के तरीके आजमा रहा है और इसमें उसकी मदद मीडियाई दलाल बखूबी कर रहे हैं। वोट बैंक के लिए सिर्फ एक जाति के पीछे भागना, फतवे निकलवाना और सत्ता की मलाई खाना। एक बार राजीव गांधी बोले थे न कि एक रुपये में से सिर्फ पांच पैसा नीचे जमीन तक आता है और बाकी सब नेतागिरी खा जाता है लेकिन उन्होंने इस पंचानवे पैसे की लूट को रोकने के लिये कुछ लिया? उलटे आदिल शहरयार के बदले एंडरसन को भगा दिया? बोफोर्स की दलाली खा गए? इमाम का फतवा आता रहा, सत्ता चलती रही मलाई खाई जाती रही। मीडियाई दलाल सत्ता के गलियारे में सत्ता के चारण भाट बनकर बीन बजाते रहे। धीरे धीरे यह मीडिया सत्ताधारी दल के किसी माउथपीस सरीखी बन गयी। इनाम बेचे जाने लगे, सत्ता के गुण गाने वाले और चाटुकारों को साहित्य अकादमी मिलने लगी और वोट बैंक की राजनीति को चमकाने की आदत किसी व्यसन की तरह इन बुद्धिजीवियों के दिमाग में भर गयी। आज का मीडिया इसी रोग से पीड़ित है और इसी रोग के कारण आप कभी इस दलाल मीडिया को गोधरा पर रोते नहीं देखेंगे लेकिन उन्हें गुजरात पर चीख चीख कर चिल्लाते देखेंगे। यह रोग किसी महामारी की तरह अब कई जगह फ़ैल गया है और कई पढ़े लिखे मास्टर, लेखक, कार्टूनिस्ट और व्यंग्यकार भी इसके शिकार हैं। आज की मीडिया के प्राइम टाइम में बैठे बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई, रबिश कुमार और सागरिका घोष जैसे न्यूज़ रीडर इसी रोग का शिकार हैं। आज बुद्धिजीवी शब्द किसी उपहास सरीखा बन गया है और इसी प्रकार के लोग इसके ज़िम्मेदार हैं जो कन्हैया जैसों को हीरो बनाते हैं? बहरहाल सत्ता की चकाचौंध में जनता के हित की अनदेखी पहले भी होती रही है और अब भी हो रही है, केजरीवाल जैसे नेता सत्ता के मोह में इतने अंधे हैं कि क्या कहा जाए। यह बेहद बचकाना बात है कि एक छोटे से अपूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री अपने पास कोई विभाग नहीं रखता लेकिन प्रचार के लिए करोड़ों उड़ा देता है। कोई दिमाग वाला व्यक्ति इस बात को जस्टिफाई नहीं कर सकता है कि आखिर दिल्ली के प्रायवेट स्कूलों का नोटिस मुंगेर, मुजफ्फरपुर, पूर्णिया और बेल्लारी में क्यों छप रहा है। वैसे वैचारिक उहापोह की स्थिति में भाजपा भी है, सत्ता पाकर आज भाजपा भी कई बातें समझना नहीं चाह रही है और कांग्रेसी तरीकों पर उतर आई है। यह कांग्रेसी तरीके उसे वोट बैंक की राजनीति में मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए मजबूर कर रहे हैं। कश्मीर के एनआईटी पर भाजपा का रवैया बेहद निराशाजनक है, चीन का भारत के आतंकवाद के विरोध में आये प्रस्ताव को वीटो कर देना और इसके बाद भी मोदी का मेक इन इण्डिया में चीनी कम्पनियो को रियायत देना। कोई बयान न देकर चीन पर चुप्पी साध लेना बहुत गंभीर मसला है।
भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि यहाँ अस्सी प्रतिशत हिन्दू वोट बैंक नहीं है लेकिन चौदह प्रतिशत मुस्लिम वोट संगठित बैंक हैं। यह इमाम के फतवे पर वोट डालने वाली कौम का तब तक भला नहीं होगा जब तक वह इससे ऊपर नहीं आएगी। इस समाज के ठेकेदार भारतीय संस्कृति और इतिहास से पूरी तरह अनजान हैं इनका यह राष्ट्रविरोधी रवैया इसलिए आता है क्योंकि यह भारतीयों के पैसे या चंदे से नहीं चलते बल्कि यह अरब से आये पैसे से अपनी दुकान चलाते हैं। सन सैतालीस के बाद एकदम यह स्थिति नहीं आई और शुरूआती दिनों में यह भारतीयों के ही चंदे से चलती थी, इसी कारण शुरूआती दिनों में हिन्दू मुस्लिम एकता की कई मिसालें देखने को मिली। बरेली शहर में चुन्नामियां का बनाया लक्ष्मी नारायण मंदिर या फिर बनारस में उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का काशी विश्वनाथ की सेवा में शहनाई वादन कुछ इसी प्रकार की मिसालें हैं। अब स्थिति बिगड़ चुकी है क्योंकि मुस्लिम मस्ज़िदों की फंडिंग वह कर रहे हैं जो भारत विरोधी हैं। मैं इन मौलवियों, फतवे शिरोमणियों का विरोध इसलिये भी करता हूँ क्योंकि यह कभी भी खुले तौर पर आईएसआईएस जैसे संगठनों के खिलाफ फ़तवा नहीं देते लेकिन भाजपा को वोट देने के खिलाफ फ़तवा जरूर दे देते हैं। अब भारत के मुसलमानो का रिमोट अरबी और पाकिस्तानी हाथ में होना और इसीलिए जब भारत का कोई भी राजनैतिक दल कश्मीर पर भारत के रुख का विरोध करेगा, वह इन ठेकेदारों की आँख का तारा बन जाएगा। जो कोई भारतीय संस्कृति की बात कहेगा वह इनके लिए रास्ते का रोड़ा और काँटा बन जाएगा। अजीब सी वैचारिक लड़ाई है, जिसमे व्यक्तिगत स्वार्थ हैं, वोट बैंक है, लूट है, आतंकवाद का समर्थन है लेकिन देश का राष्ट्रवाद कहीं नहीं है। जब तक देश के सभी नागरिकों का भारतीयकरण नहीं होगा कोई ख़ास फायदा नहीं होगा। राजनीति से धर्म को दूर करना जरूरी है। मुस्लिम धर्म गुरुओं और मौलवी का चुनाव को लेकर दिया जाने वाला फ़तवा बंद होना चाहिए क्योंकि यह असंवैधानिक है। वैसे इसकी उम्मीद काफी कम है और मुझे नहीं लगता है कि ऐसा कभी होगा क्योंकि यही इन मौलवियों की कमाई का मुख्य साधन है। आप यदि इनकी दुकान बंद कराने का प्रयास करेंगे तो फिर एक नया मालदा एक नया पूर्णिया हो जायेगा और फिर इनके समर्थन में राष्ट्रविरोधी और इसी विदेशी फंड से चलने वाला मीडिया तो है ही।
गजब देश है अपना!!
बुधवार, 24 फ़रवरी 2016
1971 भारत की हार या जीत?
भारत 1965 के पाकिस्तान के ऑपरेशन द्वारिका से काफी कुछ संभल चुका था और उसने इस बार पाकिस्तान को नौसेना के फ्रंट पर सबसे पहले मारना शुरू किया। यहाँ मैं आपको बता दूँ की सात सितम्बर 1965 में पाकिस्तानी नौसेना के आठ जहानों और पनडुब्बी ग़ाज़ी ने भयंकर उत्पात मचाया था और यह भारतीय नौसेना की पहली हार थी। हाँ बाद में इन सभी जहाजों को सन 71 की लड़ाई में भारत ने नष्ट कर दिया था और इस गाज़ी को भी आईएनएस राजपूत ने 1971 में विशाखापट्टनम पोर्ट के पास डूबा दिया था।
Of course, no country, not even the United States, can prevent massacres everywhere in the world — but this was a close American ally, which prized its warm relationship with the United States and used American weapons and military supplies against its own people.
"The assessment of our embassy reveal (sic) that the decision to brand India as an 'aggressor' and to send the 7th Fleet to the Bay of Bengal was taken personally by Nixon," says the note. The note further says, the Indian embassy: "feel (sic) that the bomber force aboard the Enterprise had the US President's authority to undertake bombing of Indian Army's communications, if necessary."
गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016
निष्पक्ष पत्रकारिता?
पत्रकार कभी भी निष्पक्ष राजनीतिक सोच नहीं रख सकता क्योंकि वह भी एक मनुष्य है और उसका भी अपना एक दृष्टिकोण है। इस दृष्टिकोण में वह किसी न किसी सोच से प्रभावित होगा ही, वह भले कोई भी राजनैतिक दल हो। कोई पत्रकार निष्पक्ष रहने का प्रयास करे वह या तो झूठ बोलकर सामने वाले को खुश रखने का प्रयास करेगा या फिर सत्ता परिवर्तन के बाद विपक्षी दल के सत्ता में आने के बाद खुद की दुकानदारी चलाने के लिए चाटुकारी करेगा। फ़िलहाल भारत में हमेशा से यही होता आया, कांग्रेसी सोच वाले पत्रकार, एमएलए, एमपी के रिश्तेदार पत्रकारिता को चमकाए रहे और खबरिया दलाली चमकती रही। निष्पक्षता का तो खैर जाने की दीजिये लेकिन मुख्य रूप से पत्रकारिता सत्ता की गलियारों में रेड कार्पेट पर सुख और सुकून से चलती रही। प्रधानमन्त्री के साथ विदेश यात्राओं में जाना, इंटरव्यू के नाम पर मौज उड़ाना, पूरी ऐश चलती रही।
वामपंथी सोच वाले पत्रकारिता के विद्यार्थियों का तो कहना ही क्या! यह तो पैदा ही क्रान्ति करने के लिए हुए थे सो क्रांति ही करेंगे। हर जगह क्रांति, बस स्टैंड में क्रांति, बस में जगह के लिए क्रांति, स्कूल में क्रांति, घर में बाहर में हर जगह क्रांति ही क्रांति, इस क्रांतिकारी सोच के जलजले को शांत करने के लिए एक पेग लेना ज़रूरी हो जाता है सो एक स्कॉच की बोतल से इस क्रांतिकारी का दिमाग शांत होता है। यह क्रांति फिर स्त्री पुरुष की समानता के नाम पर किसी भी स्तर पर जाने को तैयार होती है, अब वह सब जायज है क्योंकि क्रांति तो करनी ही है न, क्रांति की ज्वाला को शांत करने के लिए कभी शराब तो कभी अफीम तो कभी पोर्न खाया पिया और देखा जाता है... यह सब करने के बाद ही क्रांतिकारी के अंदर की आग शांत होती है। इस क्रन्तिकारी सोच में दाढ़ी बनाने, नहाने, साफ़ सफाई जैसी छोटी और तुच्छ चीजो के लिए समय ही कहाँ मिल पाता है सो सभी वामी विद्यार्थी एकदम स्कॉलर दिखने के लिए दाढ़ी बढ़ाए रहते हैं, यह उनका ड्रेस कोड है, जो जितना अस्त व्यस्त दिखेगा उसे पत्रकारिता उतना ही अच्छा प्लेसमेंट मिलेगा।
जब इनकी क्रन्तिकारी सोच देश की सीमाओं के परे पाकिस्तान परस्ती पर उतर जाती है तब हम जैसों को तकलीफ होने लगती है। मामला देश के सम्मान से जुड़ा हुआ हो तब कोई समझौता नहीं...
समझ में आया या नहीं?