शनिवार, 26 दिसंबर 2015

भ्रष्ट होता न्यायतंत्र...

मैंने अक्सर हाई कोर्ट को बकवास फ़ैसला देते हुए देखा है, सत्र न्यायालय से दोषी को उस राज्य के हाई कोर्ट से निर्दोष साबित होते और फिर सर्वोच्च न्यायालय के सत्र न्यायालय के साक्ष्यों पर संज्ञान लेते और जाँच के बाद आरोपी को दोषी सिद्ध होते हुए भी देखा है। कई मामले ऐसे ही हुए हैं। सलमान खान का मामला इसका ताज़ा उदाहरण है, उच्च न्यायालय के जज का साक्ष्य, सबूत, रवींद्र पटेल के बयान इत्यादि पर कोई संज्ञान न लेना और इतनी जल्दबाज़ी में फ़ैसला सुना देना वाक़ई में ग़लती है। सलमान अगर बेगुनाह होते तो १३ साल बाद हम यह बात नहीं कर रहे होते की उस दिन गाड़ी कौन चला रहा था। निहसंदेह उस दिन गाड़ी सलमान ही चला रहे थे और उनको बचाने के लिए जो सबूत मिटाए गए, लोगों को बिना किसी मुआवज़ा मरने को छोड़ दिया गया उसका भी निबटान ज़रूरी है। वैसे हाई कोर्ट का इस प्रकार के बेवक़ूफ़ाना फ़ैसला देने की आदत इसलिए भी हो सकती है क्योंकि उन्हें पता है कि कोई न कोई पक्ष तो ऊपर सर्वोच्च न्यायालय जाएगा ही सो जो भी फ़ैसला दो क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन उसकी ऐसी जल्दबाज़ी से लोगों के मन में उच्च न्यायालय के प्रति विश्वास कम हुआ है। हम भारत में न्यायपालिका के भ्रष्टाचार की बात नहीं करते क्योंकि उसे पवित्र माना जाता है, लेकिन यहाँ न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया ही ग़लत है तो उसका क्या? जजों के भ्रष्टाचार की कोई बात करता है? साक्ष्यों को तोड़ना, मिटा देना या फिर उनका अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने वाले वकीलों का क्या?

कोई पुलिसवाला अपनी जान पर खेलकर किसी उग्रवादी को पकड़ता है और उस उग्रवादी को बचाने के लिए वकीलों की फ़ौज खड़ी हो जाती है, क्या किसी ने भी इन लोगों की जाँच की बात की, कि आख़िर क्या स्वार्थ था इन लोगों का जो इन्होंने आतंकी की सज़ा माफ़ी के लिए आधी रात में सुप्रीम कोर्ट खुलवा दिया? देश का दुर्भाग्य है जो न्यायमूर्ति भ्रष्ट हैं और ऐसे वकीलों से हमारी अदालतें भरी हैं। 

कोई अगर इस लेख पर आपत्ति करे तो उन्हें जस्टिस काटजू सरीखे लोगों को देख लेना चाहिए। देशद्रोही न कहूँ तो क्या कहूँ इनको आप ही कहिए? 

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

हवाबाज़ी की राजनीति...

सहिष्णुता या असहिष्णुता की बहस किसी फ़ोल्डिंग चारपाई सरीखी हो चली है और जब जिसे मन कर रहा है बिछा कर आराम कर लेता है और जब काम निकल जाता है तब मोड़ कर दीवार पर टिका कर आराम से निकल लेता है। सिर्फ़ बिहार चुनाव के समय एवार्ड वापसी, आमिर खान और शाहरुख़ खान के हालिया दिए गए बयान और उनपर आयी प्रतिक्रिया इस बात की पुष्टि करते से लगते हैं। अब इसका हमारे आम जीवन पर कितना प्रभाव पड़ा है? सोच कर देखिए ज़रा? फ़िलहाल अब इस बहस से असली आम आदमी(टोपी वाला आम आदमी नहीं) इतना ऊब चुका है कि उसे इससे मुक्ति चाहिए। कोई सहिष्णु हो या न हो लेकिन फ़ालतू की बात पर ऊर्जा खपाने का लाभ नहीं!

फ़िलहाल आज कल मुझे जो बात सबसे अधिक विचलित करती है, वह है भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विपक्ष का इस क़दर नकारात्मक हो जाना। वह सरकार के विरोध में देशद्रोह की हरकतों पर उतर आया है। इसी चिढ़ में हमारा विपक्ष पाकिस्तान जैसे देशों से मोदी सरकार गिराने के लिए मदद और समर्थन ले आया है। यह लोग झूठ और अनर्गल प्रलाप करते हुए कोई भी बात की हवाबाज़ी करके असली विकास कार्यों में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। झूठ बोलना, झूठ चिल्लाना और सिर्फ़ पर्सेप्शन की हवाबाज़ी करते रहना ही उसे अकेला रास्ता दीख रहा है। इस बात को मानने में कोई शक नहीं कि कांग्रेस हमेशा घोटाले ही करती आयी और तंत्र को अपनी लूट के लिए इस्तेमाल करती आयी है। आज जब कांग्रेस के शीर्षस्थ नेतृत्व चारसौबीसी के मामले में आरोपी हैं और ज़मानत पर बाहर हैं तो ऐसे में कांग्रेसियों का ऐसा पर्सेप्शन बनाना मानो गांधीजी के "अंग्रेज़ों भारत छोड़ो" टाइप की कोई क्रांतिकारी मामले में माँ बेटे जेल जा रहे हो।

अब भाई सीधा सीधा मामला धोखाधड़ी और चारसौबीसी का है... ठीक ऐसा ही कुछ नौटंकी केजरीवाल ने नितिन गड़करी मामले में भी किया था और उसका उन्हें भरपूर राजनैतिक लाभ भी मिला था। मीडिया ने पूरी कवरेज दी, नौटंकी हुई और बाद में लिखित माफ़ी माँगी गयी। जिस मीडिया ने आरोपी की गिरफ़्तारी को किसी हीरो सरीखी कवरेज दी उसी मीडिया ने माफ़ी की कवरेज को पूरी तरह से दबाया। ऐसा ही कुछ केजरीवाल के बाद अब कांग्रेसी माँ बेटे के मामले में होता दिख रहा है। दरअसल आज विपक्ष के पास सरकार को घेरने के लिए कोई मुद्दा नहीं है। विकास पर वह घेर नहीं सकती, गवरनेंस पर घेर नहीं सकती, किसी और राजनैतिक, कूटनीतिक मुद्दे पर नहीं घेर सकती तो ऐसे में वह अपना अस्तित्व बचाए तो कैसे? सो बाहरी देशों से आ रहे पैसे और चंदे का साथ और बाहरी देशों के नियंत्रण में चलने वाला मीडिया यह दोनों ही मिलकर देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं। देश के संघीय ढाँचे को मजबूत करना इन्हें बहुत मुश्किल लग रहा है। एक और बड़ा कारण यह भी है कि कांग्रेस को विपक्ष में रहने की आदत नहीं है सो वह आज भी बौखलाई हुई है और इसी बौखलाहट में उसे सही और ग़लत की पहचान ही नहीं हो पा रही। यदि विपक्ष एक सकारात्मक माहौल बनाए, देश के समग्र विकास में साथ दे तब स्थिति कितनी सुधर जाएगी। लेकिन सोनिया और राहुल जैसे भ्रष्ट नेतृत्व में ऐसा होना असम्भव ही है, रही सही कसर नौटंकीलाल ने पूरी कर दी है!!


सोमवार, 14 दिसंबर 2015

।।जय लोकतंत्र।।

कांग्रेस सांसद नहीं चलने दे रही, उसे लोकतंत्र पर ख़तरा दीख रहा है। सोनिया और राहुल के एक धोखाधड़ी मामले में सत्र न्यायालय से मिले अदालत हाज़री के सम्मन मात्र से यह तिलमिला गए हैं। मित्रों उनका तिलमिला जाना और संसद न चलने देना एक तरह से कांग्रेस की भारतविरोधी मानसिकता को ही दर्शाता है। कांग्रेस राजनीति के निम्नतम स्तर पर आ गयी है, उसे अब सही और ग़लत का फ़र्क़ समझना पूरी तरह से बन्द हो गया है। उसपर भी दरबारी क़िस्म के चरण चाटुकार कांग्रेस पार्टी को और गर्त में धकेले दे रहे हैं। मित्रों लोकतंत्र में एक मज़बूत विपक्षी दल का होना आवश्यक होता है लेकिन यहाँ सभी विपक्षी दल सिर्फ़ झूठ और फ़रेब की राजनीति पर उतर आए हैं। मीडिया में छुपे हुए उनके चारण भाट सदैव इसी झूठ को ज़ोर से चिल्लाने और ब्रेकिंग न्यूज़ बनाने को तत्पर हैं। सोशल मीडिया ने इस समय सबसे अहम रोल निभाया है। मीडिया और कांग्रेस, आआपा जैसे दलों के कई झूठ का पर्दाफ़ाश इसी सोशल मीडिया ने ही किया है।

वैसे भारत को कांग्रेस से अधिक कांग्रेसी मानसिकता ने चोट पहुँचाई है। घर-घर में नाकारों की फ़ौज, मुफ़्त का माल बटोरने की मानसिकता। सरकारी कर्मचारी का ऑफ़िस देर से आना, मामले को लटकाना, कमाई की उगाही के तरीक़े खोजना। यह सब कुछ ऐसी बातें हैं जो ग़ौर करने वाली हैं। आज इसी कांग्रेसी मानसिकता के ध्वजवाहक हर ओर हैं। सुनने में आया है कि केन्द्रीय कर्मचारियों के किसी महासंघ ने अगले चुनाव में मोदी के ख़िलाफ़ जाने का फ़ैसला लिया है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, हमने महान उत्तर प्रदेश द्वारा नक़ल विरोधी अध्यादेश वापसी के मुलायम सिंह के वायदे पर भाजपा को हारते देखा है और जातिवाद के कुचक्र में जकड़े बिहार द्वारा लालू को चुनलेना भी देखा है। जातिवाद से जकड़ी और जामा मस्जिद के इमाम द्वारा दिए गए फ़तवे के कारण पड़े एकतरफ़ा वोट पाने से दिल्ली की सत्ता पर बैठे केजरीवाल को भी देखा है। 

जो व्यक्ति दिन में अठारह घंटे काम करता हो, जिस पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप न हो, जो बैलगाड़ी और मर्सीडिज दोनों को एक साथ लेकर चलने, विज्ञान और आध्यात्मिक भारत का मंत्र देता हो, धर्म और संस्कृति, ब्राण्ड इंडिया की बात करता हो, मुफ़्त की सब्सिडी की जगह आत्मसम्मान की बात करता हो, मुफ़्तख़ोरी और बेरोज़गारी की जगह रोज़गार और अवसर की बात करता हो ऐसे व्यक्ति की आलोचना के लिए भर भर के झूठ लिखा जाना क्या ठीक है? 

शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

आयातित शब्दावली और दक्षिणपंथ

भारतीय समाज में और राजनैतिक परिदृश्य में कई ऐसे काल्पनिक शब्द हैं जो आयातित विचारधारा से पोषित और झूठ की बुनियाद पर टिके हुए हैं, उनका वास्तव में किसी भी भाषा से कोई वास्ता नहीं है। उदाहरण के तौर पर दक्षिणपंथी, फांसीवादी जैसे शब्द, यह शब्द किस संस्कृति से आये? क्या कभी किसी ने इसकी खोज खबर की। मेरे विचार से नहीं, यह आयातित मानसिकता और वामपंथी साज़िशों का एक बहुत बड़ा हिस्सा है जिसका पहले हम शिकार बने और फिर धीरे धीरे हम सब उस साज़िश का हिस्सा बन गए। आज आप लगभग हर राजनैतिक चर्चा में इस प्रकार के शब्दों को सुनेंगे, यह उपमा बन गए हैं। हद्द तो तब है जब राष्ट्रवादी भी स्वयं को दक्षिणपंथी कहलवाने में संकोच नहीं करते? आइये इसकी कुछ असलियत की परतें खोजते हैं। 

इस राइट और लेफ्ट शब्द को पहली बार फ्रांसीसी क्रांति (१७८९-९९) में उपयोग किया गया था, उस समय फ़्रांसिसी संसद में सत्ता और साम्राज्यवाद के समर्थकों को सत्ता के सिंहासन के दाहिने ओर और फ़्रांसिसी क्रांति के समर्थकों और साम्राज्यवादियों के विरोधियों को बायीं ओर बैठाया गया। प्रारंभिक तौर पर यह दक्षिणपंथी लोग बायीं तरफ के लोगों के विरोधी और सरकारी व्यवस्था, याजकवाद और परंपरावाद के समर्थक थे। इनको परिभाषित करता हुआ पहला फ़्रांसिसी शब्द "la droite" (the right) था। फ़्रांस में १९१५ में पुनः साम्राज्यवाद की स्थापना हुई और दक्षिणपंथियों को "Ultra-royalist" कहा गया। इस शब्दावली को बीसवीं शताब्दी तक किसी और देश ने अपने राजनीतिक परिदृश्य के अनुसार नहीं अपनाया था और यह लेफ्ट और राइट की परिभाषा फ़्रांसिसियों तक सीमित थी। १८३० से लेकर १८८० तक पश्चिम व्यवस्थाओं में कई बदलाव हुए, पूँजीवाद के खिलाफ कई आवाज़ें बुलंद हुई, और इस पूंजीवादियों के खिलाफ हुई इस सामाजिक और आर्थिक हलचल के बीच पहली बार ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी ने पूँजीवाद का समर्थन किया था, वामपंथियों की नज़र में यह घनघोर अपराध था और कंजरवेटिव पार्टी पर दक्षिणपंथी होने का ठप्पा लग गया था। अब भले यह दक्षिणपंथी शब्द साम्राज्यवादी सत्ता के समर्थन से बनी थी, लेकिन इसमें बाद में कई अन्य विचारधाराओं जैसे प्रचंड, कट्टर राष्ट्रवाद, फांसीवाद, धार्मिक कट्टरपंथियों जैसे कई विचार समाहित हो गए। सो संक्षेप में कहें तो फ़्रांस की संसद में सम्राट को हटाकर गणतंत्र लाना चाहने वाले और धर्मनिरपेक्षता चाहने वाले बाई तरफ़ बैठते थे और पूँजीवाद से सम्बंधित विचारधाराओं, साम्राज्यवाद और पूंजीवादियों के समर्थक दाईं राजनीति के अंग कहलाये। ऑक्सफ़ोर्ड की राजनीति शास्त्र की परिभाषा के अनुसार दक्षिणपंथी विचारधारा, समाजवाद और सामाजिक लोकतंत्र के खिलाफ है और यह पूरी तरह से परंपरावादी, धार्मिक कट्टरपंथी और फांसीवादी है। अब इन शब्दावलियों में बहुत विरोधाभास थे सो रॉजर एत्तवेल्ल और नील ओसुल्वियन जैसे ब्रिटिश राजनीतिक विशेषज्ञों ने इस दक्षिणपंथी को और पांच भागों में विभक्त किया है, "प्रतिक्रियावादी", "मध्यम", "उग्र", "चरम" और "नवीन"। "प्रतिक्रियावादी" वह लोग हैं जो भूतकाल को देखते हुए और धार्मिक, सत्तावादी मानसिकता को बढ़ावा दें। माध्यम मार्गी दक्षिणपंथी हर प्रकार के बदलाव के लिए तैयार और बहुत लचीला है यह सत्ता और साम्राज्यवाद को भी स्वीकार करता है और यह किसी भी प्रकार की उग्रता और चरमपंथ को स्वीकार नहीं करता है। उग्र वाद और चरमपंथ के बारे में कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है और रेडिकल राइट या फिर उग्र दक्षिणपंथी जैसे शब्द द्वितीय विश्व युद्ध के बाद समझे और जोड़े गए। बहरहाल ब्रिटेन के बाद अमेरिका भी इस लेफ्ट और राइट की राजनीति से अछूता न रह सका और फिर इसके बाद कई समाजशास्त्रियों ने बहुत कुछ और जोड़ दिया। सेंटर लेफ्ट, फार लेफ्ट और फार राइट जैसे शब्द इसमें जोड़े गए, और यह सभी शब्द उस समय की राजनैतिक दशा दिशा में समझे और समझाए गए। अमेरिका का गृह मंत्रालय दक्षिणपंथी मानसिकता को धृणा और उग्रवादी के समान देखता है और उन्होंने इसी धार्मिक उन्माद की श्रेणी में डालकर नियंत्रण के लिए विशेष कानून भी बनाये हैं। 

आप इस जानकारी के आधार पर पश्चिम की मानसिकता के आधार पर दक्षिणपंथ की परिभाषा समझ सकते हैं। भारत में दक्षिणपंथ और फांसीवादी जैसे शब्दों का कोई अर्थ ही नहीं था क्योंकि इनका भारतीय लोकतंत्र और राजनैतिक, सामाजिक संरचना से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। ये भ्रम और झूठ के बीच जिन्दा रखी गयीं वे शब्दावलियां हैं जिनको आयातित वामपंथी विचारधारा द्वारा भारतीय समाज एवं राजनीति में जहर की तरह कूट-कूट कर भर दिया गया है। जो लेफ्ट और राइट यूरोप में दो मानसिकताओं के बीच के संघर्ष से पैदा हुई हो उसे भारतीय परिदृश्य में कैसे रखा जा सकता है? दरअसल यह एक बहुत गहरी साज़िश है, वामपंथियों ने बड़ी ही कुटिलता से अपने सभी विरोधियों को साहित्य में दक्षिणपंथी लिखना शुरू किया और शब्दावलियों का जिनका भारत की संस्कृति से कोई लेना देना ही न था, फिर भी उन्होंने प्रचारित और प्रसारित किया। भ्रम का और झूठ का यह मायाजाल इतनी आसानी से फ़ैल गया कि स्वयं भारतवासी भी भ्रमित हो गए। भारत के राष्ट्रवादियों ने कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि यह दक्षिणपंथी शब्द दरअसल फ़्रांस की राजसत्ता के पक्षधर लोगों को सत्ता के दक्षिण में बैठाये जाने के कारण उत्पन्न हुआ है और इसका भारत से कोई सम्बन्ध है ही नहीं। 

क्या भारत का कोई भी तथाकथित दक्षिण पंथी राजनैतिक दल राजसत्ता का हिमायती होता दीखता है? वामपंथी विचारकों ने जिन दलों को दक्षिणपंथी होने का आरोप मढ़ा है उनमे से कितने हैं जो साम्राज्यवाद के समर्थक हैं? क्या इस तथाकथित दक्षिणपंथी मानसिकता ने कभी भी लोकतान्त्रिक परम्पराओं को नकारा है? मित्रों दुःख इस बात का है कि भारतीय राष्ट्रवाद आज वामपंथी विचारकों के बौद्धिक फरेब और भ्रमजाल में बुरी तरह से फंस चुका है और उसे खुद भी सही और गलत की समझ नहीं रही है। भारतीय राष्ट्रवाद एक उदारवादी और सांस्कृतिक परम्पराओं और वेदों, पुराणों और युगों युगों से चलती आ रही धार्मिक परम्पराओं और "वसुधैव कुटुम्बकम" की मान्यता वाला राष्ट्रवाद है। उसका किसी भी प्रकार के उग्रवाद या चरमपंथ से कोई लेना देना नहीं है। इन्ही शब्दों के मकड़जाल ने भारत के राष्ट्रवादी, उदार और हिंदूवादी धार्मिक संगठनों को पश्चिम की नज़र में चरमपंथी बता दिया है। अब पश्चिमी देशों का नजरिया दक्षिणपंथ को लेकर उनके अपने अनुभव के आधार पर है, इन्हे भारत की संस्कृति और पौराणिक मान्यताओं से क्या लेना देना? यही कारण है कि भारत में हिंदुत्ववादी तत्वों के समर्थन में कोई आवाज़ पश्चिम देशों से नहीं आती। 

कुल मिलकर मैं यही कहना चाहता हूँ कि भारत की राजनीतिक और सामाजिक संरचना में दक्षिणपंथ जैसा कोई शब्द कहीं से भी उचित नहीं है और यह सिर्फ और सिर्फ वामपंथी कुतर्क और बहुसंख्यक उदार राष्ट्रवादियों  की नासमझी की देन है। 

बुधवार, 25 नवंबर 2015

थोड़ी सी सच्चाई...

मैं जानता हूँ इसको पढ़ने की तकलीफ बहुत कम लोग करेंगे और या फिर शायद दो चार लोगो को ही फुरसत होगी इसे पढ़ने की। फिर भी समय मिले तो पढ़ लीजियेगा। किसी पर कोई असर होगा, वैसी भी उम्मीद नहीं फिर भी......  
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आज हम बात करते हैं ईसाई धर्म के प्रचारकों की कर्मठता की, वह कैसे महान प्रचारक थे। उन्होंने कैसे अपने धर्म का प्रचार किया, धर्मांतरण किये और कैसे गोवा (गोकर्ण-भूमि) को ईसाइयत का केंद्र बनाया। दुनिया के हर धर्म, पंथ का एक प्रचार तंत्र होता है (हिन्दू धर्म को छोड़कर) जिसके द्वारा वह अधिक से अधिक लोगों को अपने धर्म से जोड़ने को तत्पर रहते हैं। आइए इसे समझने का प्रयास करते हैं, जब संसार में कोर्ट कचहरी नहीं थे तब पश्चिम में हर गाँव का शासन उस गाँव के गिरिजाघर के पास रहता था, यह गाँव के गिरिजाघर सम्पत्ति का बँटवारा, लड़ाई झगड़े, नैतिक अनैतिक सवालों में अपने निर्णय दिया करते। गाँव के गिरिजाघर एक शहर के बड़े गिरिजाघर से और फिर कई शहर के गिरिजाघर अपने अपने मुख्य गिरिजाघर से जुड़े होते। यह फिर अंत में वैटिकन से जुड़े रहकर अपना शासन चक्र चलाते। प्रत्येक राजा इसी अनुसार शासन चलने का प्रयास करता और धर्म का राज कायम रहता। यहाँ इस प्रकार से गिरिजाघरों का अपना एक शासन तंत्र होता जिसका वह सभी पालन करते। ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार के लिए बिशप नियुक्त किए जाते जो देश विदेश में घूम घूमकर अपने धर्म का प्रचार करते। यह प्रचार के लिए और अपने धर्म को फ़ैलाने के लिए किसी भी हद्द तक जाते। अब श्रीमान फ्रांसिस ज़ेवियर साहब को ही देखिये, इन्होने गोकर्ण भूमि(आज का गोवा) में भयंकर नरसंहार करके ईसाइयत फैलाई और हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन करके ईसाई बनाये जाने के लिए मजबूर कर दिया। भारत के अंदरुनी राजाओं की रंज़िशोंं ने इसमें विदेशी शासकों का काम बहुत आसान कर दिया। उन्होंने तीन वर्ष तक धर्म प्रचारक (मिशनरी) कार्य किया। मलाया प्रायद्वीप में एक जापानी युवक से जिसका नाम हंजीरो था, उनकी मुलाकात हुई। सेंट जेवियर के उपदेश से यह युवक प्रभावित हुआ। 1549 ई. में सेंट ज़ेवियर इस युवक के साथ पहुँचे और जापानी भाषा न जानते हुए भी उन्होंने हंजीरों की सहायता से ढाई वर्ष तक प्रचार किया और बहुतों को अपने धर्म का अनुयायी बनाया। जापान में अपनी इस कामयाबी के इनाम स्वरूप वह भारत भेजे गए और 1552 ई. में गोवा लौटे। वहाँ दक्षिणी पूर्वी भाग के एक द्वीप में जो मकाओ के समीप है बुखार के कारण उनकी मृत्यु हो गई। फ्रांसिस जेवियर ने केवल दस वर्ष के अल्प मिशनरी समय में 52 भिन्न भिन्न राष्ट्रों में यीशु मसीह का प्रचार किया। कहा जाता है, उन्होंने नौ हजार मील के क्षेत्र में घूम घूमकर प्रचार किया और लाखों लोगों को यीशु मसीह का शिष्य बनाया। अब आप इसी प्रचार का असर देखिये जो आज भारतवर्ष में लगभग हर शहर में सेंट फ़्रांसिस ज़ेवियर के नाम पर स्कूल हैं, हर स्कूल के अपना एक फ़ादर होते हैं जो उस स्कूल के प्रिन्सिपल होते हैं। इन स्कूलों का मक़सद क्या है? यह स्कूल मुख्यतः ईसाई धर्म में अनुसार चलते हैं, आपने कई बार सुना होगा की स्कूल में मेहंदी लगाने के वजह से पिटाई कर दी गयी और क्लास से बाहर निकाल दिया गया। दरअसल यह इसलिए क्योंकि ईसाई धर्म के अनुसार यह वर्जित है। यहाँ क्रिसमस मनाया जाता है लेकिन आपको दीवाली या होली मनाए जाने की कोई ख़बर सुनने को नहीं मिलेगी। इनकी शिक्षा व्यवस्था सीबीएसई बोर्ड के अनुसार ही होगी लेकिन यह रोज के कार्यकलाप ईसाई धर्म के अनुसार ही करेंगे। इन स्कूलों के पास मिशनरीज़  संस्थाओं के ज़रिये भरपूर पैसा आता है और यह अपनी फीस भी खूब चढ़ा कर रखते हैं। उसके दो कारण हैं, १) अमीर परिवारों के बच्चे वैसे भी अंग्रेजियत की बीमारी के शिकार होते हैं और २) कैटेल क्लास के बच्चों को अपने स्कूल में भर्ती कराकर कौन क्लास की फोटो ख़राब करे। अपना भारतीय समाज, जहाँ बुद्धिजीवी इस विनाशकारी सोच से पीड़ित हैं कि कान्वेंट में पढ़ना उसके लिए अंग्रेजियत और मॉडर्नाइजेशन की निशानी है। ऐसे में इनका काम काफी आसान हो जाता है। 

ईसाई, बौद्ध धर्म ने अपने प्रचार के लिए जिस प्रकार का प्रयास किया वह अनूठा है। हिन्दू धर्म इस प्रकार के प्रचारकों से वंचित रहा, यदि मैं आदि शंकराचार्य के अलावा किसी और को याद करने का प्रयास करूँ तो कोई भी नाम मष्तिष्क पटल पर नहीं आता। इस्लाम के सूफियों ने इसी प्रकार अपने पंथ का प्रचार करने का प्रयास किया और वह भी एक बड़े हद तक कामयाब भी रहे। भारत में इन सभी को अपार सफलता मिली क्योंकि भारत के राजा कभी संगठित रहे ही नहीं। इसके कारण सभी राजाओं ने विदेशी आक्रान्ताओं का साथ देकर अपने क्षणिक लाभ के लिए अपनी ही मातृभूमि के साथ ही गद्दारी की। 

अब अगर मैं आपको समझाने का प्रयास करूँ तो गोवा महाभारत काल में गोकर्ण भूमि था, स्कन्द पुराण के अनुसार 

गोकर्णादुत्तरे भागे सप्तयोजनविस्तृतं
तत्र गोवापुरी नाम नगरी पापनाशिनी 

गोवा आदि काल से परशुराम की कर्म स्थली रहा और हिन्दू धर्म में इसका उल्लेख बहुत प्रमुखता से है।  राजा भोज, चालुक्य, कदम्ब, देवगिरि, विजयनगरम राष्ट्रों के साथ रहने के बाद उसे मुस्लिम शासकों के नियंत्रण में रहना पड़ा। वह प्रमुखता से हिन्दू बहुल क्षेत्र था लेकिन मुस्लिम और फिर पुर्तगालियों के नियंत्रण में होने के कारण हिन्दू धर्म को बहुत हानि हुई। इसमें हद तब हो गयी जब गोवा में सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर आये और उन्होंने बड़े पैमाने पर धर्मान्तरण करने के लिए आर्थिक लाभ, सरकारी फायदा और कई अन्य सुविधाओं की घोषणा कर दी। उस समय लोगों के पास अपनी जान बचाने के लिए कोई अन्य उपाय न था। नतीजा गोवा का इसाईकरण हुआ और सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर प्रमुख संत घोषित कर दिए गए और वह आज भी ईसाई धर्म के सबसे प्रमुख मिशनरी प्रचारकों में गिने जाते हैं। वैसे गोवा के ईसाई आज भी कई रीति रिवाज़ हिन्दू धार्मिक पद्धतियों से ही करते हैं लेकिन समय की मार से वह ईसाई हैं। लोग पूछ सकते हैं की मैं आज इस विषय पर क्यों लिख रहा हूँ। मित्रों मैं कभी धर्म, अधर्म की चर्चाओं में नहीं पड़ता लेकिन जब धर्म को सहिष्णुता से जोड़ कर कोई भी ऐरा गैरा हिन्दू धर्म को ही गाली देने लगे तो मुझ जैसे व्यक्ति को खामोश बैठ जाना तर्क संगत नहीं है। 

आप कई सदियों तक हमारे धर्म को लूटते आये, हम चुप रहे 
आप स्कूलों, कालेजों में शिक्षा के नाम पर अपना प्रचार करते रहे, हम चुप रहे 
आप हमारे धर्म को गालियां देते रहे, हम चुप रहे 

अब बस कीजिये, हमें भी बोलने का मौका दीजिये, हम कई सदियों से अत्याचार सहते रहे हैं, लुटते रहे हैं, पिटते रहे हैं अब अगर थोड़ी सी सच्चाई बयां करके आपकी असलियत ज़ाहिर कर दी तो अपना चेहरा देखकर आप इतना बिलबिला क्यों रहे हैं? 



मंगलवार, 17 नवंबर 2015

कांग्रेस का ज़माना ही अच्छा था

कांग्रेसी शासन ज्यादा अच्छा था, देश सहिष्णु था। कांग्रेसी काल में कभी कोई दंगे नहीं हुए थे, जाति आधारित राजनीति बिल्कुल भी नहीं होती थी। बिचौलिए बिल्कुल भी नहीं थे, हर सामान का दाम इतना कम था कि एक रिक्शे वाला भी फाइव स्टार में खाता था, सिर्फ बारह रुपये में थाली मिल जाया करती थी। सिर्फ तैतीस रुपये में अय्याशी से जिया जा सकता था। बैंक गरीबों को मुफ्त में खाता खोल दिया करते थे, बारह रुपये तो क्या मुफ्त में करोड़ों का बीमा मिल जाया करता था। कांग्रेसी काल में महिलाओं के प्रति कोई अन्याय नहीं होता था। अपराध नाम की कोई चीज थी ही नहीं, कांग्रेसी इतने देशभक्त थे जो सिर्फ चरखा चला के आज़ादी ले आये थे। चाचा नेहरू ने गुलाब के फूल से सभी का दिल जीत लिया था, वह बच्चों को इतने प्रिय थे की बच्चों को डाक टिकट भेज दिया करते थे। उन्होंने भी देश को आज़ादी दिलाने के लिए चरखा चलाया था। कांग्रेसी इतने अच्छे से मिल जुल कर घोटाला किया करते थे की कोई समझ ही नहीं सकता था। एक देश में जब भाई भाई मारामारी कर लेते हैं वहां इनका इतनी समन्यवता के साथ घोटाला करना देश में मिसाल बन जाया करता था। पुलिस, सीबीआई, सीएजी जैसी संस्थाएं काम में इतना व्यस्त रहती थी कि क्या कहा जाए। रोज रोज नए घोटाले की खबर से जनता में समन्यवता की भावना बढ़ती थी। सरकारी कर्मचारी तो इतने सुखी थे कि क्या कहें, वह जब मन करे ऑफिस आया करते थे और जब मन करे तो निकल जाय करते थे। महिलाएं ऑफिस में बैठ कर आराम से स्वेटर बुन लिया करतीं थी, सब्ज़ियाँ काट लिया करती थी। हमारी विदेश नीति इतनी अच्छी थी कि नेपाल, भूटान और श्रीलंका जैसे देश भी हमारे ऊपर चढ़ बैठा करते थे। पाकिस्तानी हमारे देश के सैनिकों का सिर्फ सर ही तो काट ले जाया करते थे, केंद्र की कांग्रेस सरकार हमेशा उसकी कठोर शब्दों में निंदा करके विरोध जता दिया करती थी। हमारे चाचा नेहरू ने चीन को संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता का समर्थन करके सहिष्णुता का परिचय दिया था। कांग्रेसी काल में एक भी बम ब्लास्ट नहीं हुआ करते थे, हाफ़िज़ सईद भाई, ओसामा जी के साथ सरकार के मधुर सम्बन्ध जो थे। वाकई बहुत अच्छा लगता था.… 

और भाजपा वाले, डेढ़ साल में एक घोटाला नहीं, कैसे लोग हैं आपस में ही मिल जुल कर काम नहीं कर पाते, अपनी ही पार्टी के लोकतंतर का पालन करते रहते हैं। और सबसे ज्यादा ज़ुल्म तो सरकारी कर्मचारियों के साथ होता है उनको समय पर ऑफिस आना पड़ता है। सरकारी दफ्तरों में काम करने वाली महिलाएं अब स्वेटर नहीं बुन पातीं, सब्ज़ियाँ नहीं काट पाती, वाकई कितनी अत्याचारी सरकार है न भैया। मोदी के पहले कोई प्रधानमन्त्री विदेश गया ही नहीं था और मोदीजी ने विदेश जाना शुरू करके एक बहुत ही गलत परंपरा डाल दी है। और हाँ मोदीजी ने देश के सैनिकों को गोली का जवाब गोले से देने का आदेश देकर बहुत ही असहिष्णुता का परिचय दिया है। श्रीलंका और सेशेल्स में भारतीय नौसेना का बेस बनाकर मोदीजी ने चीन और पाकिस्तान जैसे देशों के साथ सम्बन्ध ख़राब कर लिए हैं। मोदी तो कुछ भी फ्री में देने का मूड ही नहीं बनाते, उलटे सब्सिडी वापस लेने की बात करते हैं।  

वाकई मोदी बहुत अत्याचारी प्रधानमंत्री हैं तानाशाह हैं एकदम, कांग्रेस का ज़माना ही अच्छा था। 

रविवार, 8 नवंबर 2015

जंगलराज मुबारक

बिहार वाकई में बिहार है, आज चुनाव के नतीजे देख कर और लालू की वापसी को देखकर पहले तो चिंतित हुआ लेकिन फिर संयत भी हो गया। विश्व के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक, जहाँ आज भी प्रतिव्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का एक तिहाई, न कोई विश्व-स्तरीय शिक्षण स्थल, न कोई पांच-सितारा होटल, पर्यटन के स्थल भी गिनती के हिन्दू धर्म (बाबा धाम) और बौद्ध धर्म (गया) हैं। लालू का वह दौर याद कीजिये जब यदि कोई पटना का व्यवसायी मर्सीडीज़ खरीदता था तो उसके अगले दिन उसके घर फिरौती या फिर गुंडा टैक्स वसूली के लिए चिट्ठी पहुँच जाती थी। अपनी इस दुर्दशा के लिए बिहार किसी और को दोषी नहीं ठहरा सकता है, इसके लिए सिर्फ और सिर्फ बिहार दोषी है। आज लालू की वापसी हुई और बिहार में जंगलराज की वापसी का मार्ग प्रशस्त हो गया। दिल्ली चुनाव के बाद भाजपा को समझ जाना चाहिए था कि इस देश में विकास और प्रगति की बात करने से वोट नहीं मिला करते, यहाँ सिर्फ और सिर्फ जाति समीकरण का ध्यान और अपना वोट बैंक बनाए रखने से वोट मिलते हैं।

आखिर भारत जातिवाद के इस कुचक्र से कभी भी निकल सकेगा? शायद कभी नहीं, भारत में मुस्लिम समुदाय वोट बैंक बना रहेगा, दलित वोट बैंक बना रहेगा, यादव वोट बैंक बना रहेगा, और इस देश में लालुओं, मुलायमों का जंगलराज रहेगा, हमेशा रहेगा। वाकई आज के नतीजे के बाद साबित हो गया। धन्य हो बिहार, वाकई धन्य हो… तुमने जंगलराज चुना है, तुम्हे जंगलराज मुबारक हो॥ 

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2015

शिक्षक का कांग्रेसी हो जाना

मैं शिक्षकों की बहुत इज़्ज़त करता हूँ, हमारे समाज में शिक्षक और गुरु का बहुत सम्मान है। हम उस संस्कृति के हैं जहाँ शिक्षकों ने बाल सुलभ मन को देश के लिए तैयार किया है। रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनाकर चरित्र निर्माण किया है। गीता का कर्मयोग और राम की दृढ़ता, लक्ष्मण का तेज़ और भरत का धर्म, हमने कई पीढ़ियों से गुरु से ही सीखा होगा। मुझे यह ज्ञान मेरे दादाजी और माँ से मिला, किसी स्कूल के मास्टर ने मुझे कभी इस बारे में कुछ न सिखाया। आज मैं इस पोस्ट के माध्यम से एक प्रश्न करना चाहता हूँ हर उस शिक्षक से जो सिर्फ़ किताबी कीड़ा पैदा करना चाहते हैं और उनका व्यावहारिक ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है। 

शिक्षा और शिक्षक का कांग्रेसी हो जाना आज का कड़वा सत्य है क्योंकि किताबों को रटने और रटाने वाले मास्टर हो सकते हैं गुरु तो क़तई नहीं। मैं आज तक जितने मास्टरों के सम्पर्क में आया (स्कूल में) वह सभी या तो वामपंथी सोच वाले थे या फिर घनघोर कांग्रेसी थे,आज कल आपिए होने का फ़ैशन हो चला है। वैसे  यह एक सुनियोजित साज़िश थी जिसका हिस्सा हम सब थे। अंग्रेज़ों से जब सत्ता हस्तांतरित होकर नेहरु के पास सत्ता आयी तो उन्होंने युगों युगों से विश्व का मार्गदर्शन करने वाली प्रणाली के स्थान पर मैकाले की शिक्षा पद्धति को ही अपनाया। विदेश में पढ़ाई, अंग्रेज़ीयत से सराबोर ज़िंदगी जीने वाले नेहरु को भारतीय संस्कृति का कोई ज्ञान रहा ही नहीं होगा। रही सही कसर पूरी हो गयी जाति आधारित चुनावी जोड़ तोड़ से। अब तो संस्कृति से अलग चाटुकारिता और साम्प्रदायिक राजनीति खुलकर खेली जाने लगी। किताबें और पाठ्यक्रम बदले जाने लगे, महाराणा प्रताप की जगह मुग़ल किताबों का हिस्सा बने। हिंदूहित की बात साम्प्रदायिक श्रेणी में चली गयी और बिखरे और आपसी वैमनस्य से घिरे हिंदू इसके शिकार होते चले गए। मास्टरों ने भी सिर्फ़ किताबी ज्ञान रटाना शुरू किया और हम पढ़े लिखे क्लर्क बनते गए। 

हमने एक बार भी अपने इतिहास की ओर नहीं देखा, शून्य, दशमलव, पाई और वैदिक गणित जैसे अनेक रत्न देने वाला भारत पिछड़ता चला गया। राष्ट्र निर्माण में गुरु कहीं विलुप्त से हो गए, और मास्टरों ने स्कूल क़ब्ज़ा लिए, धीरे धीरे हम आधुनिकता की चपेट में अपना इतिहास भुलाकर सुविधावाद के शिकार होते गए और हमने भी इस शिक्षा प्रणाली में रहकर ही शिक्षा प्राप्त की। नतीजा हमारा ज्ञान घनघोर साज़िशों और अपराधों वाली कांग्रेस के महिमामंडन में ही रहा। मुग़ल महान, महान इंदिरा, राजीव के क़िस्से स्कूलों में सुनाए गए। मुझे याद है हमारे स्कूल में एक सर गर्व से बताते कि इंदिरा गांधी ने कराची तक फ़ौज घुसेड दी थी लेकिन वह यह कभी नहीं बोले कि उसी इंदिरा ने आपातकाल की आड़ में विपक्ष  के नेताओं को जेल में सड़ा गला कर मारा था। यह कभी नहीं बोले की इंदिरा गांधी भिंडरावाले को पालपोस कर कैसे इतना शक्तिशाली बना गयीं? नेहरु को महान बताने वाले शिक्षक कभी यह क्यों नहीं बोले कि नेहरु अय्याश था, अपनी अय्याशियों के चलते वह ऐड़्स से घिसट घिसट कर मरा। क्या इतिहास के कम महान विभूतियाँ थी जो नेहरु जैसे देशद्रोहियों को चाचा बना दिया गया? महाराणा प्रताप के क़िस्से सुनाने वाले कांग्रेसी टीचर हँसते हुए कहते,"उन्होंने घास की रोटियाँ खायीं और फिर गुरु चेला दोनों हँसते, "हाउ?" वह एक बार भी यह नहीं कहते कि महाराणा ने कैसे अपने आत्म सम्मान के लिए कितने बलिदान दिए। राजपूताना, पद्मिनी का जौहर, पृथ्वीराज चौहान और देश के महान सपूतों का गौरव उन्हें कभी दिखा ही नहीं क्योंकि उनपर सिर्फ़ किताबी ज्ञान चटाने का ही शौक़ रहा। देश के विकास में बालकों का विकास कितना योगदान कर सकता है वह यह कभी समझे ही नहीं। 

शिक्षकों का कांग्रेसीकरण सिर्फ़ इसलिए हुआ क्योंकि शिक्षक कभी पाठ्यक्रम से बाहर गया ही नहीं। वह उसी किताब में घुसा रहा जिसे उसको अपने बच्चों को चटाना था। उसकी उम्र भी उतनी ही रही, मसलन पाँचवी को पढ़ाने वाला मास्टर कभी छठी में गया ही नहीं फिर उसको देश दुनियाँ कहाँ से दिखती? शिक्षकों में एक नया वर्ग आया, जो बुद्धिजीवी बन गया, उसे कांग्रेसीपन से ऊब होने लगी और वह अपनी तथाकथित इंटाइलेक्चुअलपँती को शांत करने के लिए आपिया बन गया। यह और भी ख़तरनाक क़ौम बन गयी क्योंकि वह विचारधारा तो कांग्रेसी और वामपंथी दोनों की नाजायज़ औलाद सरीखी है और किसी भी समस्या का समाधान तो छोड़िए, ख़ुद में एक समस्या हैं। 

इस देश का भगवान ही मालिक है जहाँ शिक्षक को राष्ट्रवाद से लेना देना नहीं। बड़ा होना ही नहीं, रटी रटाई बातों से इतर कुछ सोचना ही नहीं और बस सिर्फ़ कुएँ के मेंढक की तरह बर्ताव करना है। यदि कोई इस मास्टर को दिशा सिखाने का प्रयास करे तो वह इनके हत्थे चढ़ जाएगा। यक़ीन मानिए इस पोस्ट को पढ़कर मास्साब मुझे सौ गालियाँ देंगे लेकिन एक रत्ती का सुधार नहीं करेंगे। 

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नोट: इस पोस्ट का उद्देश्य सिर्फ़ उन शिक्षकों पर प्रश्न करना है जो कभी किताबी पाठ्यक्रम से बाहर निकले ही नहीं या फिर राजनीतिक विचारधारा या पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं।

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

कौन है आदिल शहरयार?

आदिल शहरयार!! कांग्रेसियों के लिए एक काला अध्याय... किसी बॉलीवुड की मसाला फ़िल्म सरीखी कहानी है यह। क्या आप इनकी हकीकत जानते हैं? यह घंडी परिवार का एक अहम और काला अध्याय है। मैं राजनीति में निजी ज़िन्दगी को लाने के खिलाफ हूँ लेकिन यदि विपक्ष सुषमा स्वराज सरीखी नेता पर पारिवारिक लाभ लेने जैसा आरोप लगाता है तो फिर इनकी भी हकीकत सामने लाना एक तरह से जरूरी हो जाता है। कल सुषमा स्वराज ने आदिल शहरयार का भूत सबके सामने लाकर बहुत अच्छा काम किया, कांग्रेस उस क्षण को कोसेगी जब उसने सुषमा स्वराज पर आरोप लगाकर उन्हें बयान देने पर मजबूर कर दिया।

अब सवाल यह है कि यह शख्स कौन है? मोहम्मद युनुस और आदिल शहरयार की नेहरू परिवार से क्या दोस्ती थी? आइए इतिहास के पन्नें टटोलते हैं.... “The Nehru Dynasty” (ISBN 10:8186092005) किताब में प्रोफ़ेसर जे. एन. राव कहते हैं कि इंदिरा गाँधी (श्रीमती फिरोज खान) का जो दूसरा बेटा था, संजय गाँधी वो फिरोज खान कि औलाद नहीं था! बल्कि वो एक दुसरे महानुभाव मोहम्मद युनुस के साथ अवैध संबंधों के चलते हुए था! दिलचस्प बात ये है कि संजय गाँधी की शादी मेनका के साथ मोहम्मद युनुस के ही घर पर दिल्ली में हुई थी! जाहिर तौर पर युनुस इस शादी से ज्यादा खुश नहीं था क्यूंकि वो संजय कि शादी अपनी पसंद की एक मुस्लिम लड़की से करवाना चाहता था! जब संजय गाँधी की प्लेन दुर्घटना में मौत हुई तब मोहम्मद युनुस ही सबसे ज्यादा रोया था! युनुस की लिखी एक किताब “Persons, Passions & Politics” (ISBN-10: 0706910176) से पता चलता है कि बचपन में संजय गाँधी का मुस्लिम रीती रिवाज के अनुसार खतना किया गया था"

संजय कभी अपनी माँ की भी नहीं सुनता था, वह एक अपनी अलग राजशाही चलाता था उसकी हरकतें माँ को और तत्कालीन सरकार को नागवार गुज़रती थी। एक दावा यह भी है कि इंदिरा ने खुद अपने बेटे की मृत्यु की साज़िश रची, हालांकि मैं उस पर विश्वास नहीं करता क्योंकि मेरा मानना है कि एक माँ कभी अपने बेटे के लिए ऐसा नहीं करेगी।

बहरहाल जब अमेरिकी जांच एजेंसी ने आदिल शहरयार को पकड़ा तब मोहम्मद युनुस ने राजीव गांधी को मजबूर कर दिया कि वह उसके बेटे को छुड़वायें वरना वह नेहरू वंश की हकीकत सबके सामने ला देंगे। यही है वह काला अध्याय जिसकी चर्चा कल सुषमा स्वराज ने की। इसके संबंधी दस्तावेज नष्ट किये जा चुके होंगे और इन्होंने सबूत मिटाने की हर संभव कोशिस की होगी।  आज सुषमा स्वराज ने इस भूत को बोतल से निकालकर सबके सामने ला खड़ा किया है, विपक्ष अपनी भमिका को लेकर सवालों के घेरे में है। ललितगेट में सुषमा को घेरने की जगह वह खुद घिर चुकी है। यह उसी के पाले हुए मुद्दे हैं तो उसे हथियार डाल देने चाहिए और चुपचाप से संसद चलने देना चाहिए। जनता के पैसे को बरबाद करने की जगह चुपचाप काम करो वर्ना अगले चुनाव में चौवालीस के चार हो जाओगे।

संभल जाओ रे कांग्रेसियों!!

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

अगस्त, आतंक और आज के हमारे मूल्य

अगस्त का महीना... हिरोशिमा और नागासाकी की तबाही को याद करने का महीना है। विध्वंस की पराकाष्ठा और मानवीय संवेदना के नाश को याद करने का महीना है। अमेरिका के पर्ल-हारबर में हुई जापानी कार्यवाही के बाद द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका को परोक्ष रूप से उतरना पड़ा (इसके पहले यह सिर्फ आग में चिंगारी देकर दूर से मजे ले रहे थे)। शक्तिशाली अमेरिका के कूदने के बाद जापान और उसके मित्र देश कमज़ोर पड़ गए और इस विध्वंसकारी युद्ध की पूर्णाहुति परमाणु हमले और लाखों लोगों की आहुति से हुई। आज जब परमाणु शक्ति से संपन्न अनेकानेक देश अपनी शक्ति के मद में चूर हैं वैसे में विश्व को बचाए रखने और इसका संतुलन बनाए रखने में देशों को महती भूमिका निभानी होगी।

अमेरिका सरीखे देश सदैव अपने स्वार्थ के लिए क्षद्म लड़ाइयां करते आये हैं। शीत युध्द का सहारा लेकर और वामपंथी शक्तियों को कमज़ोर करने के लिए अमेरिका ने ही इस्लामिक आतंक की पौध को तैयार की थी। वामपंथी शक्तियाँ (रूस और चीन) सदा से अमेरिका के लिए चुनौती बने रहे और इस इस्लामिक गठबंधन ने अमेरिका को शीत युद्ध में विजय दिलाने में महती भूमिका निभाई। अब यदि आप भूत पालेंगे तो वह आपको ही खायेगा और यही अमेरिका के साथ भी हुआ है। आज अमेरिका संभल चुका है और उसको अपनी इस गलती की बहुत बड़ी सजा मिल चुकी है। इसलिए आतंकवाद के खिलाफ विश्वव्यापक कार्यवाही में अमेरिका बहुत हद तक सम्मिलित है और उसे और देशों का समर्थन चाहिए। इस्लामिक आतंक आज विश्व के लिए आज एक बड़ा खतरा है और लगभग सभी देश इससे चिंतित हैं। आज जब आईएस जैसा संगठन भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अपनी नापाक हरकतें फैलाने की बात करता है और उसे भारत से ही देशद्रोहियों का समर्थन मिलता है तब मुझे बहुत घृणा होती है। भारत में आज भी जयचन्दों की फ़ौज बैठी हुई है और यह देशद्रोही लोग हर प्रकार से निजी स्वार्थ के लिए देशहित से समझौते कर सकते हैं। वैसे अभी सत्य असत्य और धर्म अधर्म पर भारी है इसलिए हमारा अस्तित्व बना हुआ है।

आज प्रत्येक भारतीय (चाहे उसकी कोई भी जाति हो), समझे अपनी संस्कृति को। धर्म और आध्यात्म, योग और परमात्म हमारा सत्य है। विश्व बंधुत्व और मानवमात्र की सेवा हमारा सत्य है। भगवान राम, कृष्ण और विवेकानंद का देश है भाई। भ्रमित युवा, भ्रमित शिक्षा, खुले और उद्विग्न समाज में फैले कुचक्र मानवीय मूल्यों को कम कर रहे हैं। अब समय आ गया है जब सत्य को समझा जाए और अपने मूल्यों की ओर चला जाए। अब भी न चेते तो विनाश निश्चित है।

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

बुद्धिजीवी मने क्या?

आज एक प्रमुख अखबार ने बुद्धिजीवी शब्द को लेकर काफी तल्ख़ टिप्पणी की है। कह रहा है मानो यह गाली हो चला है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं उनकी इस खीझ पर हंसु या रोऊँ। भाई सेकुलर और बुद्धिजीवी शब्द की व्याख्याएं खराब करने में लश्करे-मीडिया ही तो ज़िम्मेदार है। यह लोग खबर को तोड़ मरोड़ कर, खरीद फरोख्त कर बिके हुए लोग हैं और इनके जवाब में अगर शोशल मीडिया है तो इन प्रेश्याओ का अनर्गल प्रलाप कौन झेले। राष्ट्र की सुरक्षा सर्वोप्परि है सो ऐसे में आप मेमन को हीरो क्यों बना रहे हैं? उसको कवरेज आप ही दे रहे हैं न? कितनी बार और दुनिया के किसी और देश में क्या आतंकवादी की सजा माफ़ी के लिए रात में दो बजे सर्वोच्च न्यायालय कभी भी बैठा है? आपका सौभाग्य यह है कि आप भारत जैसे देश में हैं जहाँ आपको आतंकवादी के भी मानवाधिकार की बात कहने की आज़ादी है। आप आसानी से पुलिस, सरकार, सोशल मीडिया, हिन्दू संगठनों को गाली दे सकते हैं क्योंकि यह तो सुनने के आदी हो चुके हैं। वैसे भी मुसलमान वोट बैंक है न और इन भटके हुए नौजवानों के लिए देश हित जैसी कोई बात नहीं है।

प्रेस भारत की बिकी हुई है। यह एक बार भी राष्ट्रवाद की बात नहीं करते, देशहित सबसे ऊपर है, धर्म उसके बाद तो आतंकवादी को सजा देने में उसका मजहब कहाँ से आ गया? यह ओवैसी जैसा आदमी और ऐसी कमीनी प्रेश्याऐं आखिर कौन से देश का हित साध रही हैं? कौन है इनके पीछे? आखिर इन वकीलों को पैसे कौन दे रहा है? इन प्रेश्याओँ को कौन पाल रहा है?

सुरेश जी की ब्लॉग पोस्ट से सहमत हूँ की चार लिस्ट निकाली जाए

- मोदी को वीज़ा न देने की चिठ्ठी लिखने वाले
- अफज़ल गुरु की फांसी का विरोध करने वाले
- कसाब की फांसी का विरोध करने वाले
- मेमन की फांसी का विरोध करने वाले

और इस लिस्ट में जो भी नाम कॉमन हो, पता लगाया जाए उसकी संदिग्ध गतिविधियों का। यह निःसंदेह बड़े देशद्रोह की साज़िश का खुलासा करेगा।

और हाँ प्रेश्याओँ अगर शर्म है तो डूब मरो चुल्लू भर पानी में.... जो पुलिस वाला उस आतंकवादी से लड़ते हुए मर गया उसके घर वालों की आँख में आँख डाल कर बोलो.... मुम्बई हादसे में मरे लोगों के परिवार से मिले हो कभी? जानते हो हवलदार तुकाराम काम्बले कौन था?

।।धिक्कार।। धिक्कार।।